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मार्च, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"ने" की मनमानी

 कारकचिह्न  'ने' की मनमानी हिंदी सीखने-बोलने वाले के मार्ग में जो अनेक भटकाऊ किस्म के मोड़ आते है उनमे एक है ‘ ने ’| इसे कर्ता कारक का चिह्न माना जाता है | किशोरीदास वाजपेयी इसे संस्कृत के कर्मवाच्य का अवशेष मानते हैं और ‘ ने ’ वाक्यों के विचित्र स्वभाव को देखते हुए ऐसी वाक्यरचना को ही कर्मवाच्य मानते हैं | अन्य विद्वान इसे मानते तो कर्तृवाच्य ही हैं फिर भी इसके लिए कुछ बंदिशें तय कर देते हैं | किंतु उनसे मामला पूरा सुलझता नहीं | ‘ ने ’ के मामले में पूरे हिंदी क्षेत्र में ही एकरूपता नहीं है | असल में यह ‘ ने ’ अधिकतर पश्चिमी उत्तरप्रदेश में   प्रचलित है , यही शायद इसकी जन्मभूमि भी है | सो वाराणसी से पश्चिम की ओर पंजाब तक इसका प्रयोग शुद्ध होना चाहिए था , पर वहाँ भी अशुद्ध प्रयोग मिलता है | पूर्वी हिंदी के लिए तो यह अनोखा मेहमान है | वहाँ ‘ ने ’ के बिना वाक्य सहज रूप से बनता है | जैसे ; “ हम कहे थे , हम खाना खा लिए हैं ’ आदि , किंतु मानक व्याकरण ऐसे प्रयोगों को अशुद्ध मानता है! इसलिए नियमानुसार “ हमने कहा था , हमने खाना खा लिया ” कर लिया जाता है | जब हिं

भाइयो या भाइयों

भाषा  से एक मसला और जुड़ा है और मसला गंभीर है। यों भाषा से जुड़े मसले प्रायः गंभीर होते नहीं, बना दिए जाते हैं। "मेरी भाषा - तेरी भाषा" के चक्कर में यहाँ राज्यों के बटवारे हुए, आत्मदाह हुए। पंद्रह साल टिकने की मोहलत वाली विदेशी भाषा अमरता का वरदान पा गई और इस देश की मिट्टी में जन्मी, पली- बढ़ी भाषा दिखावे की राजभाषा बना दी गई! इस दर्द को न ही पूछें तो अच्छा। जाने क्या-क्या हो रहा है आज भी भाषा के नाम पर! बहरहाल आज मसला है... "भाइयों! बहनों!!" -- ये संबोधन सही है या "भाइयो! बहनो!!" यदि प्रचलन के हिसाब से देखें तो हमारे प्रधानमंत्री जी भी " भाइयों, बहनों" ही कहते हैं। उधर गीता का परामर्श है कि श्रेष्ठ जन जो करें वही हमें भी करना चाहिए। इसलिए भाइयों, बहनों, बच्चों, साथियों जैसे प्रयोग धड़ाधड़ होरहे हैं - मीडिया में भी और आम जन में भी। लेकिन संबोधन में ऐसे प्रयोग अशुद्ध हैं। हिंदी का कोई व्याकरण इन्हें सही नहीं मान सकता। मूल एकवचन शब्द के साथ "ओं" जोड़कर बहुवचन बनता तो है, पर संबोधन में कभी नहीं। यों समझ लें कि"ओं" को जब बहुवचन ब

बहुत कुछ है, अगर...

अभी बहुत कुछ है, अगर बची है होली  ... होली पर एक किस्सा याद आ रहा है | एक किसान था. खेत पर काम करते दोपहर हो गई तो पोटली खोलकर रोटी खाने लगा| साथियों ने देखा तो बोले, “सूखी रोटी खा रहे हो, नमक मिर्च ही ले लेते|” किसान ने कहा, “इन सब के बारे में सोच लेता हूँ, तो वही स्वाद आ जाता है!” आज होली पर्व की भी यही हालत है | बरसने को रंग नहीं, भीजने को चुनरी नहीं! इतना पानी नहीं कि रँग घोलें. सिंथेटिक गुलाल लगाने की हिम्मत नहीं पड़ती | नए हुरिहारों की पीढ़ी अब सिनेमा की होलियाँ भी नही जानती| डफ, ढोल, मजीरा कहीं संग्रहालयों में शायद मिल जाएँ | हँसने ठहाके लगाने की फुर्सत किसे है | जिन पर हँसा जा सकता है वे हँसी बर्दाश्त नहीं कर सकते | सो उनपर अब हँसने को नहीं, तरस खाने को जी करता है | अपने पर हँसी आती तो है, पर भीतर ही घुमड़ कर रह जाती है. रसोई से आने वाली शिकायत सिर्फ यही नहीं है कि महंगाई में गुझिया-नमकीन कैसे बने, शिकायत यह भी है कि किसके लिए बने ? परिवार बिखर गए, रिश्तेदारों को फुर्सत नहीं, और मुझ जैसे सीनियर सिटीजनो को बदपरहेजी से परहेज रखना है!  “फिर भी त्यौहार तो त्यौहार है,