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चुनावी भाषा की कुछ अभिव्यक्तियाँ

अपने देश की व्युत्पादक लोक-बुद्धि का कमाल है कि जब भी चुनाव आते हैं तो शब्दभंडार में कुछ नए शब्द और पदबंध जुड़ जाते हैं। चाहें तो इसे लोकतंत्र में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनुषंगिक लाभ भी कह सकते हैं| यह बात और है| अभी तीन अभिव्यक्तियों पर ध्यान जा रहा है। सूपड़ा साफ होना   कोश के  अनुसार सूप शब्द संस्कृत के शूर्प का तद्भव है। शूर्पनखा (सूप जैसे नखों वाली) या शूर्पकर्ण (सूप जैसे कान वाला) जैसे पौराणिक नामों में यही शूर्प है जो प्रायः अन्न को पछारने , उसमें से कंकड़-पत्थर या भूसी जैसी गंदगी अलग करने वाला एक उपकरण है। इसे छाज भी कहा जाता है। यह सूप हिंदी में ही नहीं , उसके परिवार की अन्य भाषाओं-बोलियों के अतिरिक्त मराठी , गुजराती में भी इसी अर्थ में है। कबीर ने तो साधु स्वभाव की तुलना ही सूप से कर डाली :     साधू ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय , सार-सार को गहि रहै , थोथा देइ उड़ाय॥ इसी सूप से जुड़ा है हीनार्थक प्रत्यय “-ड़ा”, जो मूल अर्थ में कुछ नकारात्मकता या हीनता भर देता है। तो शब्द बन गया "सूपड़ा"। हीनार्थक हो या उन्नतार्थक , सूपड़ा भी सूप की भांति

हिंदी : प्रश्न और प्रतिप्रश्न

हिंदी के बारे में या उसके विरोध में जब भी कोई हलचल होती है तो राजनीति का मुखौटा ओढ़े रहने वाले भाषा-व्यवसायी बेनकाब होने लगते हैं. उनकी बेचैनी समझ में तो आती है , पर हँसी इस बात पर आती है कि संविधान का नाम बार-बार रटने और संविधान की कसम खाने के बाद भी ये गोलबंदी या अविश्वास का माहौल बनता क्यों है. यहाँ हम केवल एक ही प्रावधान को याद करें. संविधान के   अनुच्छेद   351   में   हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश देते हुए स्पष्ट कहा गया है : “ संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए ,  उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप ,  शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। ” यही सब देखकर हिंदी के विषय में अक्सर यह लगने लगता है जैसे संविधान के संकल्पों का निष्कर

आज्ञा और आदेश

आज्ञा और आदेश यह कल्पना ही असंभव है कि हमें किसी-न-किसी रूप में कभी किसी आज्ञा या आदेश का पालन न करना पडा हो | कभी तो इनमे अंतर करना कठिन हो जाता है कि यह जो कहा गया है, वह आदेश है या आज्ञा | और इस नासमझी का बड़ा अंतर पड़ सकता है | इन दोनों शब्दों में अंतर थोड़ा नाजुक अवश्य है पर है बड़ा रोचक | आप आज्ञाकारी हैं या नहीं यह तो आपको आज्ञा देने वाले जानें किंतु आदेश देने वाले जानते हैं कि उनके आदेशों का अनुपालन न करना सहज नहीं है | आज्ञा की अनदेखी कोई कर सकता है परन्तु आदेश की अनदेखी के लिए उसे सौ बार सोचना पड़ सकता है | आज्ञा-पालन विवशता नहीं है, यह श्रद्धा और कर्तव्य की परिधि में आता है | हमारा-आपका कर्तव्य है बड़ों की आज्ञा मानना किंतु न मानें तो यह बड़ों पर है कि वे उस अवहेलना को नैतिक मुद्दा बनाते हैं या नहीं, किंतु आदेश के साथ यह विकल्प उपलब्ध नहीं है | किसी भी आदेश के पीछे आदेश देने वाले का पद, रुतबा या अधिकार होता है और होता है उसमे निहित भय जो आपको आदेश का अनुपालन करने के लिए विवश करता है | आप आदेश से असहमत हों , तो भी | इस प्रकार आदेश में औपचारिकता भी है और बाध्यता भी | सक्षम अधिक