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सितंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रश्न भविष्य की अभिव्यक्ति- भाषा का

सामान्यतः सभी भाषाओं और विशेषकर हिंदी को लेकर कुछ प्रश्न और हैं जो मन-मस्तिष्क को अक्सर झिंझोड़ते हैं . 21-वीं शताब्दी के ग्लोबलाइजेशन और तेज़ रफ़्तार की टेक्नोलॉजिकल प्रगति के कारण जो बदलाव आ रहे हैं उसमे हिंदी एवं प्रांतीय भाषाओँ का स्वरुप (मानलें जैसे 50 वर्ष बाद) क्या होगा ? यह शुभ संकेत है कि हिंदी बाज़ार-व्यवसाय की भाषा के रूप में सशक्त दावेदारी प्रस्तुत कर रही है. विज्ञापन, विपणन की हिंदी उसके व्यावहारिक रूपों के अधिक निकट दिखाई पड रही है, जो उसकी ग्राह्यता और प्रचार-प्रसार दोनों के लिए अच्छा लक्षण है.   ऐसे में फिर एक प्रश्न उठता है कि सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का प्राथमिक वाहन बनने वाली भाषा कैसी होगी ? उसपर परंपरा से चले आ रहे प्रतिमान किस सीमा तक लागू होंगे? क्या अभिव्यक्ति, सृजनात्मक अभिव्यक्ति की भाषा का स्वरूप मौलिक रूप से शब्द की अपेक्षा दृश्य और ध्वनि प्रभावों से अधिक प्रभावित होगा? ऐसे प्रश्न अभी तो बहुत प्रासंगिक प्रश्न नहीं लगते किंतु ये चुनौती देर-सवेर   हमारे सम्मुख होगी, और आज हम इन पर आधिकारिक रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में भल

एक पाठक : तीन पत्र

मुद्रण माध्यम के सबसे पुराने हिदी दैनिकों में हैं हिन्दुस्तान और नभाटा.  #हिन्दुस्तान अपना पहला प्यार है, दूर – दराज भी जहाँ रहा डाक से मंगाकर पढता रहा. अब भी छूटता नहीं. पत्रकारिता की भाषा को इसने एक स्तर दिया है. पर अब जचता नहीं, अब के सम्पादक गोदी जमात की ओर झुके लगते हैं या समय के साथ चलने के पक्षधर. सम्पादकीय किसी पत्र का अपना दृष्टिकोण होता है जो जनमत की नब्ज भी होता है और जनमत बनाने में सहायक भी, पर अब इस पत्र के सम्पादकीय देखकर यह कहने का मन होता है कि इसके साथ सम्पादक का नाम हो और यह डिस्क्लेमर भी कि “इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं”! #नवभारत_टाइम्स (नभाटा) को विद्यानिवास मिश्र जी के समय से नियमित देखता रहा. हिंदी के एक से बढ़कर एक धुरंधर इसके संपादक रहे, पर पिछले कुछ वर्षो से इसे हिन्दी का पत्र कहना ही असंगत और अटपटा लगता है. अंग्रेजी मोह में इसने अपना नाम तक बदल डाला, #NBT होगया! पत्रकारिता में हिंदी की ऐसी दुर्गति करने के लिए नभाटा का यह योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा. शर्म आती है जब गैर-हिंदीभाषी या विदेशों में हिंदी सीखने वाले नभाटा की हिंदी पर व्यंग्य करते

हिंदी के विरोध की रस्म

भाषा की आड़ में राजनीति खेलने वाले कुछ तत्त्व अपनी धूमिल होती लोकछवि से घबरा कर भाषाई राजनीति का सहारा भी जब-तब लेते रहते हैं। पिछले दिनों बंगलूरु में हुई घटनाओं को भी इसी परिप्रेक्ष में समझा जा सकता है। ‘हिंदी साम्राज्यवाद नहीं चलेगा’, ‘हिंदी थोपी जा रही है’, ‘पिछले आश्वासनों को पूरा करो’, ‘नम्मा कन्नडा’, ‘नम्मा बेंगलूरू’ आदि नारे सिर उठाने लगते हैं। कुछ दिनों बाद या तो स्वत: दब जाते हैं या स्वार्थ सिद्ध न होने पर स्वत: नेपथ्य में चले जाते हैं। भाषा के हथियार को कभी उत्तर-दक्षिण का मसला बना दिया जाता है, कभी अमुक दल बनाम अमुक दल का। इससे आम भारतीय को, जिसने दक्षिण का जनमानस नहीं देखा, यह भ्रांत धारणा होने लगती है कि दक्षिण में व्यापक हिंदी विरोध है. जब कि वस्तुर्तः ऐसा है नहीं.  कर्नाटक को ही लें। उन गिने-चुने कन्नड़ भाषियों को छोड़ कर, जिनमें क्षेत्रीय संकीर्ण राजनीति के बीज कूटकूट कर भर दिए गए हैं, शेष लोगों में हिंदी के प्रति कोई वैमनस्य नहीं है। हिंदी को बिल्कुल न समझ सकने वाले कम ही हैं, जो दूर-दराज के गांवों में रहते हैं, ग्रामीण व्यवसायों में लगे हैं और जिनका बाहरी दुनिया

गणमान्य या गण्य-मान्य

गणमान्य या गण्य-मान्य "गण्यमान्य" और "गणमान्य" शब्दों के प्रयोग पर कभी चर्चा चलती है, तो कोई एक को तो कोई दूसरे को अशुद्ध ठहरा देता है। इसलिए इन पर अशुद्ध होने का आरोप लगने से पहले ही इन पर चर्चा करना ज़रूरी लगता है। इसे सफाई देना न समझा जाए। शुद्धिवादी तो "गणमान्य" को शुद्ध मानते हैं क्योंकि संस्कृत में यही प्रचलित है। हमारी हिंदी तो स्वतंत्रऔर संपन्न भाषा होते हुए भी आत्मविश्वास के अभाव में संस्कृत का मुँह जोहती रहती है। सो "गणमान्य" जनसामान्य को चाहे मान्य हो, शुद्धिवादियों को मान्य नहीँ। फिर भी सच यह है कि गणमान्य अशुद्ध नहीं है। हिंदी में गण्यमान्य की अपेक्षा अधिक प्रचलित है और भाषा में अपना स्थान बना चुका है।  इस गणमान्य की व्युत्पत्ति भी सरल है। गण अर्थात लोक; वही लोक जो लोकतंत्र बनाता है, लोकरीति में है और लोकप्रिय में भी। तो जो गण में मान्य हो, जो लोकमान्य हो, वह होगा गणमान्य अर्थात् लोक में मान्य। गण्य विशेषण गण् धातु से है, अर्थ है गणना करने के योग्य। बड़े लोगों में, विद्वानों में गणना के योग्य जो हो वह गण्य तथा जो माना जाने, मान्य