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अर्थापकर्ष के कुछ विचित्र उदाहरण

समय के साथ साथ शब्दों के अर्थों में कुछ ऐसी विचित्रता आ जाती है जो कोशीय अर्थ से बहुत दूर होती है, और अनादर या अपमान का भाव जुड़ जाता है। इसे अर्थापकर्ष (pejoration) कहते हैं। अपकर्ष अर्थात गिरना, डाउनग्रेड। अर्थापकर्ष के अनेक उदाहरण हैं। यहाँ कुछ विचित्र उदाहरण दिए जा रहे हैं जो कुछ धार्मिक और सामाजिक मर्यादाओं के प्रति समाज की बदलती धारणा को या निंदाभाव को दर्शाते हैं। छक्का (हिजड़ा) < षट्क, षडक् से क्योंकि ये लोग परंपरा से दो गुँथे हुए त्रिभुजों (षट्कोण) को अपना धार्मिक प्रतीक मानते हैं। बुद्धू < बुद्ध, बौद्धों को मूर्ख बताने के लिए। देवानां प्रियः < अशोक। बौद्धों पर व्यंग्य। नंगा-लुच्चा < नग्न, लुंचित (जैन धर्म की धार्मिक क्रियाओं के प्रति अनादर भाव) लालबेग (तिलचट्टा और स्वीपर के लिए) < लालबेग एक मुस्लिम संत थे। लालबेग मत के लोग भारत-पाक दोनों देशों में हैं। वर्ग विशेष को नीचा दिखाने के लिए । आवारा < यायावर (घुमक्कड़) से, कोई ठौर ठिकाना न होने का भाव।

जहाँ लोक ने अंग्रेजी भाषा पर वर्चस्व स्थापित किया

जहाँ लोक ने अंग्रेजी भाषा पर वर्चस्व स्थापित किया- २ सेना की शब्दावली अर्थात् भाषिक "फ्यूज़न" भारतीय सेना का नाम चाहे ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौज रहा हो, महारानी की या अंग्रेज सरकार की फ़ौज रहा हो, धरातल पर लड़ने वाला वीर सिपाही तो गोरा अंग्रेज नहीं, सदा देसी भारतीय था; साधारण पढ़ा लिखा या अनपढ़ ग्रामीण, जिसे शासक की भाषा समझ नहीं आती थी। इसलिए काम चलाने के लिए उसने अंग्रेजी के शब्दों, पदों और पदबंधों को अपनी देसी हिंदी में ढाल लिया ताकि वह समझ जाए और वैसा कर सके जैसा फ़ौजी अफसर  चाहते थे।  आज ऐसे ही कुछ शब्द याद आ गए तो दिए जा रहे हैं। आप भी इनसे परिचित हों तो कुछ अन्य सुझाइए। एक बात ध्यान रखने की है कि ऐसी शब्दावली भी हिंदी साहित्य और भाषा के शब्द भंडार का अभिन्न अंग होती है क्योंकि इससे भाषा संपन्न ही होती है। यह जानना भी रोचक होगा कि इनमें कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो वापिस अंग्रेजी भाषा में प्रवेश कर गए और आज अंग्रेजी शब्दकोशों में शामिल हैं। *Who comes there ? > हुकुम सदर  *Half-cock-fire-lock > आपका सुलूक *Automatic > अटक-मटक *Officiating > हाफ़ शूटिंग *Weather has p

जहाँ लोक ने अंग्रेजी भाषा पर वर्चस्व स्थापित किया- १

जहाँ लोक ने अंग्रेजी भाषा पर वर्चस्व स्थापित किया- १ 🏤🏥🏚️ भाषा को भाषा शास्त्र या व्याकरण उतना नहीं चलाता जितना लोक चलाता है। सर्वाधिक समर्थ और विद्वान वैयाकरण पाणिनि ने भी यह स्वीकार किया है की शास्त्रीय प्रयोग से बढ़कर है लोक का प्रयोग।  अंग्रेज भले ही इस देश पर दो-तीन सौ वर्ष छाए रहे हों, उनकी भाषा आज भी प्रभुत्व और स्टेटस की भाषा हो, लोक ने उसे अपने ढंग से स्वीकार किया। यहाँ बहुत थोड़े से स्थान नामों के उदाहरण हिंदी क्षेत्र से दिए जा रहे हैं जो सिद्ध करते हैं कि कैसे लोक ने अपनी समझदारी और सुविधा से कुछ अंग्रेजी स्थान नामों का नामकरण किया है, देश भर में तो ऐसे सैकड़ो उदाहरण मिल जाएँगे।  *कलेक्टर गंज > कलट्टरगंज (लखनऊ) *विक्टोरिया बाज़ार > टूड़िया/टुड़िया बाजार (लखनऊ) *गार्डन > गर्दन > गर्दन बाग > गर्दनिया बाग (पटना) *गॉड्स ओन विला > गोदौलिया > गुदौलिया। (वाराणसी) *मेटकॉफ हाउस > मटका हौस (दिल्ली) *Behind the Bazar = Bhindi Bāzar भिंडी बाज़ार (मुम्बई) *प्लैटून बाज़ार> पल्टन बजार (अनेक छावनी शहरों में) *रापट गंज - रॉबर्ट्सगंज (सोनभद्र) *मैक्लोडगंज - मे

पनौती

पनौती की व्युत्पत्ति  हिंदी में -औती प्रत्यय से अनेक शब्द बनते हैं, जैसे -कटौती, चुनौती, मनौती, बपौती आदि। पनौती के बारे में कम लोग जानते हैं क्योंकि इसके आधार शब्द के बारे में जानकारी नहीं है।  पनौती का कोशीय और लाक्षणिक अर्थ समझने के लिए दो मार्ग हैं: १. पानी > पन (जैसे- पनबिजली, पनचक्की, पनीला) + औती= पनौती, बाढ़, सैलाब।  २. पन- संस्कृत 'पर्वन्' से (अवस्था- जैसे बचपन; दशा) + औती, पनौती; शनि की बुरी दशा का समय (bad phase)। शनि ग्रह की साढ़े साती, जो जीवन में अधिक से अधिक केवल चार बार ही आती है। दोनों स्थितियों में पनौती का लाक्षणिक अर्थ कठिनाई, मुसीबत। अभिधार्थ (कोशीय अर्थ) पर ही लाक्षणिक अर्थ टिका होता है। "मुख्यार्थबाधे तद् योगे लक्षणा"। जब मुख्य अर्थ बाधक हो तो उसके आधार पर नया अर्थ लाक्षणिक होता है।  पनौती चाहे बाढ़ की हो, चाहे शनि ग्रह की; दोनों ही दशाओं में डरावनी और विनाश की सूचक है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि लोक में 'पनौती आना' मुहावरा बन गया और इसका लाक्षणिक अर्थ विस्तार मुसीबत के रूप में हो गया। कई लोग तिरस्कार के रूप में 'पनौती' बोलते हैं।

शाप को श्राप

शाप या श्राप?? 🤔 व्याकरण की दृष्टि से शाप/श्राप में किसे शुद्ध माना जाए? उत्तर होगा शाप को। यह शप् से बना मूल तत्सम है। संस्कृत में श्रप् कोई शब्द नहीं है जिससे श्राप बने। इसलिए इसे तद्भव भी नहीं माना जा सकता। यह अधिक व्युत्पादक नहीं है अर्थात संयुक्त और यौगिक शब्द शाप से ही निर्मित हैं। जैसे>>शप्त, अभिशाप, अभिशप्त, शापित, शाप मुक्ति, शापमोचन, शापोद्धार आदि शब्दों के वैकल्पिक रूप श्राप से नहीं बनाए जा सकते। इसलिए भी शाप को ही व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध माना जाएगा। अपभ्रंश व्याकरण के एक नियम के अनुसार रेफ (रकार) मनमाने रूप से कहीं भी आ सकता है उसके आधार पर शाप को श्राप बनाया जा सकता है। यदि इसे सही मानें तो भी कहना पड़ेगा कि  नियम भंग कर अपभ्रंश से हिंदी में पधारे 'श्राप' ने शुद्ध तत्सम 'शाप' को ही शाप देकर बाहर कर दिया है। इसलिए शापोद्धार करना आवश्यक है।

पनीर और पनीरी

उत्तर भारत में कोई भी दावत चाहे शादी-ब्याह की हो या घरेलू मेहमानदारी की , पनीर से बने व्यंजन के बिना अधूरी मानी जाती है। अविभक्त पंजाब में इसका बहुत चलन रहा है।  पनीर फटे/फाड़े हुए दूध का घन अंश है। छेना भी कहा जाता है। पनीर शब्द की उत्पत्ति फ़ारसी से है। चलन चूँकि पंजाब और पाकिस्तान में अधिक है, इसलिए यह भी संभव है कि पनीर पंजाबी या उत्तर पश्चिम की किसी भाषा से फ़ारसी में गया हो।  पंजाब में अश्वगंधा के बीजों, फूलों को 'पनीरी' कहा जाता है जो दूध फाड़कर पनीर बनाने के काम आते हैं। जैसे दही जमाने के लिए जामन, उसी प्रकार दूध फाड़कर पनीर बनाने के लिए पनीरी, जिसका मुख्य घटक अश्वगंधा नाम की वनस्पति है। अश्वगंधा को ऋष्यगंधा भी कहते हैं जिसका वैज्ञानिक नाम Withania Coagulans है। इसके फूल 'पनीर डोडा' या पनीर का फूल। आजकल लोग सिरका या नींबू के रस को ही प्रयोग में लाते हैं। पंजाबी में सब तरह के छोटे पौधों को , जिन्हें कहीं भी लगाया जा सकता है (हिंदी में बेहन, saplings) या बेहन की क्यारी को भी पनीरी कहा जाता है।  तमिऴ में पन्नीर-பன்னீர் सुगंधित जल, गुलाब जल को कहा जाता है। तमिलनाडु

एकाबखत और हबीक

कुमाऊँ में श्राद्ध कर्म से संबंधित दो शब्द लोक प्रचलित हैं- 'एकाबखत' और 'हबीख'। परंपरानुसार श्राद्ध से पहले दिन श्राद्धकर्ता और उसकी पत्नी एक बार ही भोजन करते हैं। उस दिन के लिए लोकप्रसिद्ध नाम है- 'एकाबखत'। व्युत्पत्ति इस प्रकार होगी- एक + अभुक्त > एकाभुक्त > एकाबखत ( = एक समय भोजन न करना)। अथवा एक भुक्त (एक बार भोजन करना)। एकाबखत का 'बखत' फ़ारसी से आया हुआ अरबी मूल का 'वक़्त' भी हो सकता है- एक वक़्त > एक बखत> एकाबखत ( = एकबार)। इस उत्पत्ति पर भी शंका नहीं की जानी चाहिए क्योंकि कुमाउँनी में सैकड़ों शब्द फ़ारसी मूल के हैं और आम व्यवहार में हैं। लोक व्यवहार में भी एकाबखत का प्रयोग फ़ारसी मूल को ही संकेतित करता है। कुमाउँनी में कहा जाएगा- "एकाबखताक् दिन खाण् एक्कै बखत खानी, बखत बखत नि खान्।" (एकाबखत के दिन खाना एक ही बखत खाते हैं, बखत बखत नहीं खाते।)! 'हबीक' शब्द वैदिक काल का है और उस भोजन से संबंधित है जो एकाबखत के दिन किया जाता है। हबीक बना है 'हविष्य' से। 'हवि' अर्थात हवनीयद्रव्य, घृत, घी-भात, कोई पव

कुमाउँनी के लिए कुछ लिपि संकेत

जब कभी मेरे कुछ मित्र कुमाउँनी के लिए मानक लिपि बनाने की बात करते हैं तो मैं असहमति व्यक्त करता हूँ और मेरे ऐसा करने में उन्हें बुरा लगता है। मैं प्रायः यह कहता रहा हूँ कि यदि उत्तराखंडी भाषाओं को विलुप्त होने से बचाना चाहते हैं तो कम से कम इन दो कामों से शुरूआत कीजिए। यह हुआ तो भाषाएँ जिएँगी, वरना तो भविष्य डरावना है ही। 1. अपने घरों में, परस्पर व्यवहार में अपनी भाषा का प्रयोग कीजिए । 2. प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में, पब्लिक हो या सरकारी, शिक्षा का माध्यम अपनी भाषा को बनवाइए और उसे किसी न किसी रूप में, किसी न किसी प्रकार रोज़गार से जोड़िए। मानकीकरण की बात भी तभी उठती है जब भाषा का मौखिक और लिखित रूप में पर्याप्त प्रयोग हो रहा हो। बच्चा जिएगा, बड़ा होगा तो डिज़ाइनर सूट पहन लेगा। इसी प्रकार कुमाऊँनी भाषा को अभी लोगों को बोलने-लिखने दीजिए। वह जीवित रहेगी, उसका प्रवाह होगा तो कूल - किनारे स्वतः तय होते जाएँगे । ऊपर उल्लिखित सुझावों में पहला तो शायद इसलिए गले न उतरा हो कि जिस प्रकार हिंदी भाषी के लिए अंग्रेजी में बोलना संभ्रांतता का लक्षण है, उसी प्रकार कुमाउँनी भाषी के लिए हिंदी में बोलन

॥भद्रं भद्रं वितर भगवन्॥

॥ भद्रं भद्रं वितर भगवन्...॥ पोस्ट का आशय किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना यह किसी उत्सवी मन का मजाक उड़ाना नहीं है. भद्रा के साथ ज्योतिषियों ने इतना डरावना माहौल कैसे बना दिया पता नहीं. लोगों ने राखी बाँधने से ही परहेज नहीं किया, कुछ लोगों ने तो फेसबुक में भी भद्रा बीतने के बाद ही शुभकामनाएँ देना शुरू किया!  . मिथकों की बात छोड़ दें तो भाषिक तर्क यह कहता है कि 'भद्रा' को डरावना नहीं होना चाहिए. जो शब्द भद्र (=भला) से बना हो, उसमें अशुभ की आशंका कैसी! संस्कृत कोष देखें तो इस भद्रा के बीसियों अर्थों में अशुभ तो कोई भी नहीं है. ''सर्वे भद्राणि पश्यन्तु...",  "भद्रं-भद्रं वितर भगवन् ..." जैसी सूक्तियाँ; भद्रे!, हे भद्रमुख! -- ऐसे प्यारे विशेषण हैं कि पूछिए मत. 'भद्रा' कुछ देवियों का नाम है और गाय को भी भद्रा कहा जाता है.  . एक बात ज़रूर रोचक है. हिंदी मे इस 'भद्र' से ही दो परस्पर विलोम शब्द बने हैं. भला और भद्दा! भद्र > भल्ल > भला; और भद्र > भद्दअ > भद्दा ! रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ।  धरती माँ ने मामा को इस साल विशेष राखी भेजी है।

गरीब की गुदड़ी अमीर का पैच वर्क

गूदड़ शब्द संस्कृत √गुध् (वेष्टन, ढकना, लपेटना) धातु से है। गूदड़ का अर्थ है बहुत फटे-पुराने कपड़े जो किसी काम के न रह गए हों। गूदड़ों में से कुछ काम के टुकड़े निकाल कर उन्हें थेगली (टल्ली) के रूप में आपस में जोड़कर सिलाई करके जो चादरनुमा कपड़ा बनाया जाता है उसे गुदड़ी या गूदड़ी कहते हैं। गुदड़ी गरीबों के ओढ़ने-बिछाने के काम आती है। कुछ साधु सन्यासी केवल गुदड़ी ही लपेटते थे इसलिए उन्हें गुदड़ी साईं या गुदड़ी बाबा, गुदड़ी शाह कहा जाता था। आज फ़ैशन की दुनिया में भी गुदड़ी चलती है, नाम बदलकर।रंग-बिरंगे पैबंदों से बने अनेक प्रकार के वस्त्र, चादरें, रजाइयाँ जिन्हें पैच वर्क कहा जाता है! बहुत महंगे बिकते हैं पैचवर्क यानी गुदड़ी के वस्त्र। पुराने शहरों, कस्बों में गुदड़ी बाज़ार या गुदड़िया बाज़ार नाम के मोहल्ले मिल जाएँगे जिनमें फटे-पुराने वस्त्र बेचे-खरीदे जा सकते थे। गुदड़ी बाज़ार से आशय है टूटी-फूटी तथा फटी-पुरानी वस्तुओं का संग्रह, पुरानी चीज़ों का बाज़ार, विभिन्न बेमेल चीजों का संग्रह, इधर-उधर से जुटाई हुई चीजों का बाज़ार जिसे कहीं कबाड़ी बाज़ार भी कहा जाता है। गरीब, साधनहीन

मार-धाड़

मार-धाड़  मारधाड़ हिंदी का युग्म शब्द है जिसके दोनों घटक सार्थक हैं और परस्पर पूरक भी। मार के अनेक अर्थों में से दो अर्थ सामान्यतः अधिक प्रचलित हैं- पीटना-कूटना और जान से मार देना। इसके प्रचलित युग्म हैं - मार-काट, मार-पीट और मार-धाड़। मार-काट या मार-पीट तो मारना के साथ काटना, पीटना के समास हैं। मार-धाड़ के बारे में कहीं कहा गया है कि किसी अंचल विशेष में धाड़, धाड़ा से बना है। धाड़ा का अर्थ डकैती, लूटपाट आदि हैं। उनके अनुसार डाकू जब धाड़ा करने आते हैं तो गोलीबारी और अफरा-तफरी में लोगों की जानें भी जा सकती हैं। इसलिए शब्द बना मारधाड़। मारधाड़ की यह व्याख्या सीधे अर्थ के लिए बहुत दूर भटकने का उदाहरण है, दूर की कौड़ी बुझाना भी कह सकते हैं।  मारधाड़ वाले 'धाड़' की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है। धाड़ अनुकरण वाची शब्द हो सकता है, जैसे धड़ाम। धड़ाम-से गिर पड़ा को धाड़-से गिर पड़ा भी कहा जाता है। मार-काट मचाई तो मरने-पिटने वाले धाड़-से नीचे गिरेंगे, सो शब्द बना मार-धाड़! अधिक तर्कसंगत यह है कि धाड़ शब्द 'दहाड़' से बना हो। 'द' के साथ महाप्राण 'ह' मिलकर उ

ऋणं कृत्वा घृतंं पिबेत्

चार्वाक दर्शन के नास्तिक भौतिकवाद का भी एक अपना आनंद है! यावज्जीवेत सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्  भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥  चार्वाक दर्शन दर्शन की वह प्रणाली है जो इसी जीवन में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में नहीं। इसे नास्तिक दर्शन या लोकायत दर्शन भी कहा गया है। विद्वानों ने वेदवाह्य दर्शन कहा है, नकारा नहीं। चार्वाक दर्शन की यह परंपरा उत्तराखंड में आज भी जीवित है। सिंह संक्रांति (सौर भाद्रपद की पहली तिथि) को कुमाऊँ में "घी संक्रांति" कहा जाता है और विश्वास है कि इस दिन येन-केन-प्रकारेण यदि घी न खाया जाए तो अगले जन्म में घोंघा होना निश्चित है। घोंघा बसंत (परम मूर्ख) तो बहुत मिलते होंगे आपको। घोंघा (संस्कृत में घोङ्घ:) बहुत ही धीमी चाल से चलने वाला लिजलिजा जीव जो किसी भी स्पर्श या हलचल से तुरंत सिकुड़कर अपनी पीठ पर लदे खोल में घुस जाता है। घोंघे के लिए बसंत का सौंदर्य या हलचल व्यर्थ है। कवच के अंदर घुसा न कुछ देख सकता है, न समझ सकता है, न घूम-फिर सकता है। संभवत: इसीलिए कहा गया हो घोंघा बसंत। इसी रूपक को थोड़ा दार्शनिक/मनो

ओझा, झा और ख़्वाजा

नेपाल, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश में ब्राह्मणों के तीन उपनाम प्रायः मिलते हैं : झा, ओझा और उपाध्याय। सामाजिक मान्यता के पैमाने में इन्हें  बिस्वा या पंचगौड़ में जो भी स्थान मिला हो, पर व्युत्पत्ति की दृष्टि से ये तीनों एक ही मूल "उपाध्याय" से विकसित हुए हैं। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार नए भाषिक प्रमाण यही संकेत करते हैं।  वेद-वेदांग के अध्यापक उपाध्याय कहे जाते थे। उपाध्याय (संस्कृत) से > उवज्झा (प्राकृत) > ओझा > झा (हिंदी, मैथिली) > । झा को सीधे संस्कृत अध्यापक > शौरसेनी प्राकृत अज्झावअ से व्युत्पन्न भी माना जा सकता ता है।  ख़्वाजा •خواجَہ (तुर्की > ईरानी > उर्दू) भी इसी मूल का माना जाता है जो बौद्ध साहित्य के साथ पालि भाषा में उअज्झा के रूप में पहले मध्य एशिया पहुँचा और वहाँ से ईरान और तुर्की। मध्य काल में फ़ारसी में ख़्वाजा बना और फ़ारसी से सहज ही हिंदी, उर्दू में पहुँच गया। ख़्वाजा का अर्थ है कोई आदरणीय व्यक्ति, फ़कीर, अमीर सौदागर। ख़्वाजा से मिलते-जुलते दो शब्द फ़ारसी के और हिंदी/उर्दू में हैं - ख़्वाजासरा और खोजा। दोनों का अर्थ लगभग समान है। ये

जो घी से भरपूर, वह घेवर

सावन आए और घेवर न आए, यह कम से कम उत्तर भारत में तो संभव नहीं है। घेवर, सावन का विशेष मिष्ठान्न माना जाता है। श्रीकृष्ण को समर्पित होने वाले 56 भोगों में घेवर का भी स्थान है। घी से भरपूर होने के कारण संस्कृत में इसे "घृतपूर" कहा गया है। व्युत्पत्ति है, "घृतेन पूर्य्यते इति घृतपूरः।" आचार्य हेमचंद्र के अनुसार पिष्टपूर, घृतवर, घार्त्तिक भी इसके पर्याय हैं। इनमें घृतवर से घेवर की व्युत्पत्ति अधिक निकट लगती है, घृतवर > घीवर > घेवर। गुजराती में 'घेबर' (घ्यारी, घारी भी), मराठी में 'घेवर/ घीवर', सिन्धी 'घीउरू', बांग्ला 'घ्योर' आदि घेवर के ही नाम हैं।  अपने आराध्य गिरधर गोपाल का प्रिय होने के कारण मीराबाई भी सुवा से अनुरोध करती हैं: बोल सूवा राम राम बोलै तो बलि जाऊँ रे ।  सार सोना की सल्या मगाऊँ, सूवा पीजरो बणाऊँ रे ।  पीँजरा री डोरी सुवा, हाथ सूँ हलाऊँ रे ॥ कंचन कोटि महल सुवा, मालीया बणाऊँ रे।  मालीया मैं आई सुवा, मोतिया बधाऊँ रे। जावतरी केतकी तेरै, बाग मैं लगाऊँ रे। पलारी डार सुवा, पींजरो बधाऊँ रे। घृत घेवर सोलमा - लापसी

कपूर से काफ़ूर

कपूर के उपयोग के प्राचीनतम प्रमाण इंडोनेशिया से जुड़ते हैं। बाली की भाषा में भी इसे कपूर ही कहा जाता है। भारत में इसका उपयोग पौराणिक काल से हो रहा है। इस शब्द को भाषावैज्ञानिक ऑस्ट्रो-एशियाई (मलय) मूल का मानते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार मानी जा सकती है- संस्कृत में कर्पूर; प्राकृत, पालि में कप्पूर; हिंदी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में कपूर । कर्पूर ही अरबी में काफ़ूर, लैटिन में camfora और अंग्रेजी में camphor बनकर पहुँचा।  कपूर ऊर्ध्वपातीय पदार्थ है, यानी ठोस अवस्था से द्रव में बदले बिना सीधा गैस बनकर उड़ जाता है, अर्थात् काफ़ूर हो जाता है। उर्दू और हिंदी में काफ़ूर का दूसरा लाक्षणिक अर्थ (गायब होना/लुप्त होना) इसी उड़नशील गुण-धर्म के कारण बना है! प्राकृतिक कपूर इसी नाम के पेड़ों से प्राप्त होता है। इंडोनेशिया, जापान, चीन इसके पुराने उत्पादक रहे हैं। भारत में शुद्ध कपूर को भीमसेनी कपूर भी कहा जाता है। आयुर्वेद के ग्रंथों में कपूर के अनेक औषधीय प्रयोग बताए गए हैं। सुगंधित द्रव्य होने के कारण देव पूजा आदि में धार्मिक कर्मकांडों में भी काम आता है। पूजा में काम आ

निपसि RAS

भाषा विज्ञान में एक शब्द है निरर्थक परिवर्णी सिंड्रोम (Redundant Acronym Syndrome - RAS) इसका अर्थ है कथन में ऐसे शब्दों या पदों का दोहराव जिन की आवश्यकता नहीं थी। व्यर्थ पुनरावृति की यह प्रवृत्ति प्रत्येक भाषा में पाई जाती है। हिंदी में इसका एक कारण कोड-परिवर्तन (code switching), एक भाषा के भीतर दूसरी भाषा के शब्द पिरोना, भी है।  हिंदी में इसके कुछ मनोरंजक उदाहरण दिए जा रहे हैं। दैनंदिन व्यवहार में आपको ऐसे अनेक रोचक उदाहरण मिलेंगे। उन्हें स्मरण कर सकते हैं। 👇⬇️👇 • कपड़े वाले की दुकान पर सुनाई पड़ता है, "कोई कटपीस का टुकड़ा दिखाइए।" • दादी माँ समझाती हैं, "बादाम रौग़न का तेल दूध में मिलाकर लिया करो।" • मास्टर जी डाँटकर कहते हैं, "दुबारा से रिपीट करो।" • थोड़ी सी भी समझदारी की अकल होती तो झुककर नमन करते।  • अब वे गुस्से में मुँह फुलाए बैठे हैं। • अच्छे सज्जन लोग खामोशी से उधर बैठे हैं चुपचाप। • गंगाजल के पानी की ही तरह आबे ज़मज़म का पानी भी पवित्र माना जाता है। • ये उदास मायूसी अब बर्दाश्त नहीं होती।  • गेहूँ का आटा पीस दिया गया। • गमला बीच सेंटर में रख द

काश केदारनाथ... !

काश, केदारनाथ ... ! मेरी केदारनाथ की यादें कोई छह दशक पुरानी हैं पर आज भी ताज़ा हैं | अगस्त्यमुनि से पैदल यात्रा, लगभग 3,000' से 11,500' तक की धीरे-धीरे कठिन और दुर्गम होती चढाई जिसका अंतिम चरण तो यात्री के धैर्य और ऊर्जा की परख होता था । आज कौन विश्वास करेगा कि तब केदारनाथ में रात में रहने का रिवाज़ नहीं था | कुछ साधु-सन्यासी, पुजारी, रावल, देवालय के सेवक, उनसे जुड़े कुछ पेशेवर और कुछ गिने-चुने ढाबे वाले ही वहाँ टिकते थे। यात्री तड़के ही गौरी कुंड से चलकर केदारनाथ पहुँचते और दर्शन करने के बाद शाम तक गौरीकुंड या रामवाडा लौट आते | जो लोग इतनी लंबी पैदल यात्रा करने की स्थिति में न हों, वे रामवाडा में पडाव करते और केदारनाथ के दर्शन कर वापिस रामवाडा या गौरीकुंड लौटते थे। यदि किसी विवशता से केदारनाथ परिसर में रुकना ज़रूरी हो जाए तो कोई होटल या गेस्टहाउस नहीं था, पंडे ही व्यवस्था करते थे । उनके पास यजमान यात्रियों द्वारा दान में दिए गए बिस्तर, रजाइयाँ या कम्बल इतने होते थे कि ऐसे यात्रियों को आकस्मिक बर्फ़बारी और ठंडक में भी कोई कठिनाई नही होती थी । कुछ धर्मशालाएँ भी थीं प

दो जून की रोटी

दो जून की रोटी ...  Two square meals a day. आज दो जून है। 'दो जून की रोटी के लिए आदमी भागा फिरता है।' यहाँ 'जून' किस भाषा से सम्बन्धित है, यह जानने का विषय है। इसका मूल कहाँ है और इसके अतिरिक्त किस रूप में इसका प्रयोग होता है?  वस्तुतः यह जून June नहीं, हिंदी का शब्द है। "शब्दसागर" संस्कृत इसे धुवन शब्द से विकसित (तद्भव) मानता है।  अन्य कोश उल्लेख नहीं करते, सो अज्ञात व्युत्पत्तिक (देशज) भी हो सकता है। कुछ अवधी का मानते हैं, पर हिंदी, उर्दू, के साथ साथ हिंदी की अन्य अनेक बोलियों में भी बहुत प्रयुक्त हुआ है। यह "जीमन/जीमना" (भोजन करना) का लाक्षणिक प्रयोग भी हो सकता है, दो वक्त ही 'जीमते' हैं।  तर्कसंगत व्युत्पत्ति यह लगती है कि हिंदी में जून प्राकृत जुण्ण, पाली जुन्न से हो, जिसका संबंध संस्कृत जूर्ण (>जून पुराना) से है।  "का छति लाभ जून धनु तोरे।  देखा राम नयन के भोरे ॥ मारवाड़ी में  जून/जूण दो अर्थों में प्रयुक्त होता है- १. दो जूण री रोटी - दो वक्त का खाना २. मिनख जूण। चौरासी लख जूण - मनुष्य योनि/ चौरासी लाख योनियाँ (८४ ल

कहावत कथाएँ

आमतौर पर किसी कहावत (लोकोक्ति) के पीछे कोई न कोई कथा छिपी होती है जिसे समय के साथ भुला दिया जाता है, पर कहावत बनी रहती है। आइए, कहावत कथाओं की एक शृंखला शुरू करते हैं। १. नौ दिन चले अढ़ाई कोस उन दिनों बद्री-केदार की कठिन यात्रा पैदल होती थी और सबसे दुर्गम मानी जाती थी। 2/3 साधुओं का एक दल किसी प्रकार केदारनाथ पहुँचा। वहाँ उनका परिचय किसी दूसरे‌ यात्री दल से हुआ। अब अगले दिन उन दोनों दलों को बद्रीनाथ जाना था। पहले दल के लोग दूसरे से कुछ पहले चल पड़े.  पहला दल वापस रुद्रप्रयाग और जोशीमठ होता हुआ नौ दिन में पैदल बद्रीनाथ पहुँचा तो देखा दूसरा दल वहाँ से लौट रहा था। उनसे पहले दल ने पूछा आप कब पहुँचे यहाँ? उत्तर मिला नौ दिन हो गए, और अब लौट रहे हैं। उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि इतना लंबा मार्ग इन्होंने एक ही दिन में कैसे पूरा कर लिया। मालूम हुआ कि दोनों तीर्थों के बीच ग्लेशियर से होकर गुजरने वाला एक दुर्गम चट्टानी मार्ग उस दल को मालूम था, जिससे केदारनाथ से बद्रीनाथ की दूरी मात्र अढ़ाई कोस थी। इसलिए वे एक ही दिन में केदारनाथ से बद्रीनाथ पहुँच गए थे। तो कहावत बनी- नौ दिन चले, अढ़ाई कोस। २. "

संपृक्त और परिवर्णी शब्द

एक मित्र की फेसबुक पोस्ट पर एक मजेदार शब्द मिला "काराश्रमी"। प्रयोग कुछ ऐसे अर्थ में किया है, " हमारे आश्रम पहले शिक्षा-संस्कृति का केंद्र होने के कारण आदरणीय स्थान होते थे। आश्रमवासी कुछ कथित संतो ने ऐसा कुछ किया कि न्यायालय ने उन्हें आश्रमी से काराश्रमी (कारावास + आश्रमी) बना दिया!" इस प्रकार दो भिन्‍न शब्‍दों की ध्‍वनियों का कुछ भाग ले कर बनाया गया संपृक्त शब्‍द अंग्रेजी में portmanteau कहा जाता है- port (=ले जाना) और manteau (=वस्त्र आदि सामान) से बना मिश्र शब्द। Portmanteau शब्द का 'आविष्कार' 1882 में चार्ल्स एल डॉडसन ने ऐसे शब्दों के लिए किया था जिनमें एक ही शब्द के भीतर दो शब्द पिरोए गए हों। हिंदी में दो शब्दों से संपृक्त Portmanteau शब्द अनेक हैं। 2006 में रूस के सहयोग से भारत में निर्मित मिसाइल ब्रह्मॉस (BrahMos) नाम भारत की प्रसिद्ध नदी ब्रह्मपुत्र और रूस की नदी मॉस्क्वा के नाम को मिलाकर बना है। इसी प्रकार भारत यूरोपीय के लिए भारोपीय। यूरोप और एशिया के लिए यूरेशिया। अंग्रेजी स्मोक और फॉग से स्मॉग। फिल्म जगत के सैफ़ और कैटरीना के लिए सैफीना । गुजरात

लफड़ा, टशन और फंडा

लफड़ा   झगड़ा-झमेला, झंझट के लिए मुंबइया हिंदी से आया है। मूलतः मराठी का देशज "लफड़े" लगता है जो गुजराती में "लफड़ो" है।  हम तो बेकार ही लफड़े में फँस गए! वहाँ बड़ा लफड़ा हो गया, पुलिस बुला ली गई है ।  अब स्वजनों या समाज की अस्वीकृति के बावज़ूद हुए प्रेम संबंध या छिपे प्रेम संबंध के लिए भी लफड़ा का प्रयोग होता है। इस अर्थ में एक लोक व्युत्पत्ति इसे फ्रेंच लाफ़ेयर (L'affaire) शब्द से जोड़ती है और दूसरी अंग्रेजी के लव (love) से विकसित होने की संभावना बताती है।  टशन    नई पीढ़ी की शब्दावली में बहुत प्रचलित है। दिखावा करने वाले युवाओं के लिये भी इस्तेमाल किया जाता है। अंग्रेजी स्टाइल और पैशन/ का मिला-जुला रूप लगता है। टेंशन (तनाव) से भी हो सकता है। कोई तनाव न लो इस अर्थ में कहा जाता है -टशन मत ले यार।   टशन में बेफ़िक्री, फ़ैशनबाज़ी, और मस्ती जैसे तत्व शामिल हैं। अंग्रेजी के एटीट्यूड attitude के अर्थ में भी इसका प्रयोग देखा गया है।  फंडा   अंग्रेजी fundamental से है, मूल मंत्र या वास्तविक कारण के अर्थ में । मूल अंग्रेजी शब्द विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है, किंत

लोचा और झोल

लोचा और लोचे का स्वाद  लोचा शब्द अज्ञात व्युत्पत्तिक है और मुंबइया हिंदी का उपहार है। एक बॉलीवुड फ़िल्म का नाम भी था "कुछ कुछ लोचा है", संभवतः "कुछ कुछ होता है" के अनुकरण पर रखा गया हो किंतु लोचा की कहानी में लोचे अनेक हैं। लोचा का हिंदी में अर्थ है- किसी बात पर होने वाली कहा-सुनी या विवाद, अचानक पैदा हो गई कोई समस्या या रुकावट। बुंदेलखंड में जमे हुए घी या मक्खन में से पाँचों अंगुलियों से निकाला गया घी का लोंदा भी लोचा कहलाता है किंतु हिंदी में प्रचलित लोचा से इस मक्खनी लोचे का कोई संबंध नहीं प्रतीत होता। एक गुजराती व्यंजन का नाम भी लोचा है। कहा जाता है कि एक शेफ़ ने गलती से खमण के घोल में अधिक पानी डाल दिया, जिससे खमण कुछ पतला और बिखरा-बिखरा-सा हो गया। इसे देखकर वह चिल्लाया ‘अरे, आ तो लोचो थाइ गयो’ अर्थात यह तो समस्या आ गई! अपनी गलती छिपाने के लिए उसने स्वादिष्ट-रंगीन सजावट (टॉपिंग) के साथ पतले घोल से बना व्यंजन परोस दिया। लोगों को यह पसंद आया और उसका नाम ही पड़ गया लोचा।    झोल, झोला और झोलाछाप झोल की उत्पत्ति संस्कृत दुल् (दोलन, झूलना) से है। झोला, झूला इसी से बन

घर वापसी

घर वापसी का सामान्य अर्थ है घर लौटने का भाव। कोई कुछ समय के लिए घर से बाहर निकला हो तो उससे पूछा जा सकता है, आपकी घर वापसी कब है? अर्थात आप कब,  कितने दिन में लौटेंगे।  आजकल मीडिया में इसका लाक्षणिक प्रयोग अधिक चल पड़ा है जो अधिक पुराना नहीं है। पहले एक राजनीतिक दल से दूसरे में जाने के बाद वापस पुराने दल में लौट आने के लिए "घर वापसी" मुहावरे का प्रयोग दिखाई पड़ा था। अब धर्म परिवर्तन कर हिंदू बनने के लिए भी प्रयुक्त होता है, इस तर्क या पूर्वग्रह के साथ कि इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार करने से पहले उसके पूर्वज हिंदू ही रहे होंगे; इसलिए पुनः हिंदू बनना घर वापसी कहा गया। ****

मच्छर और खटमल

मच्छर, खटमल ••• ••• खून चूसने वाले कीटों में मच्छर बहुत प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हो चला है, इतना महत्वपूर्ण कि करोड़ों करोड़ का व्यवसाय मच्छर मारक रसायनों का, मलेरिया से होने वाले रोगों से बचाव की दवाइयों का चल रहा है और लोग मालामाल हो रहे हैं। मच्छर के चलते लोग खटमल (bed bug), खटकीरा, पिस्सू (flea), जूँ (louse) आदि को भूल गए हैं; जब कि रक्त शोषण में योगदान इनका भी कम नहीं रहा।  कहते हैं पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" गोरखपुर से लौटे तो बनारसीदास चतुर्वेदी जी ने पूछा गोरखपुर में तो मच्छर बहुत हैं आप कैसे सो पाए? "उग्र" जी, जो अपने व्यंग्य के लिए जाने जाते थे, तुरंत बोले- भाई, मच्छरों ने बहुत ज़ोर लगाया कि मुझे आसमान में ले चलें, किंतु धन्यवाद खटमलों का कि वे उतने ही ज़ोर से नीचे खींचते रहे और इस तरह मैं खटिया पर बना रहा। खटमल के आतंक से दुखी एक संस्कृत कवि को कहना पड़ा कि लक्ष्मी जी कमल पर, शिव हिमालय में और विष्णु क्षीर सागर में खटमलों के डर से ही तो सोया करते हैं, नहीं तो ये कोई सोने की जगहें हैं। कमले कमला शेते, हरश्शेते हिमालये क्षीराब्धौ च हरिश्शेते, मन्ये मत्कुण शङ्