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मटकी का सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ

होली का उत्सव निकट है और एक शब्द याद आता है #मटका, मिट्टी से बना घड़ा। इसकी व्युत्पत्ति भी संस्कृत मृत्तिका/मृदा से है। अनेक नाम है इसके और अनेक सामाजिक- सांस्कृतिक संदर्भ भी। श्रीकृष्ण का इन नामों से गहरा संबंध है। मटकी फोड़ना उनका प्रिय शौक रहा है, वह चाहे माखन दही की मटकी हो या जमुना से जल भरकर कठिन डगर से लौटती किसी गोपिका की मटकी। इसका बड़ा रूप अर्थात माट ब्रज-लोकगीतों में विशेषकर होली के गीतों में बड़ा महत्व रखता है। यह होली कितनी लोकप्रिय है -- "कोरे कोरे माट मँगाए तिन मँह घोला रंग। भर पिचकारी सन्मुख मारी अंगिया हो गई तंग। रंग में होली कैसे खेलूँ री मैं साँवरिया के संग।" गाँव-देहात में तो आज भी माट, मटकी, घड़ा, मटका जीवन का अंग हैं। भीषण गर्मी हो तो सार्वजनिक प्याऊ पर आप बड़े मटके देख सकते हैं। गोरस के लिए आज भी मटकियों का उपयोग किया जाता है। मैथिली में दो किलो तक समाई की मटकी को मटकूड़ी कहा जाता है। ताड़ी के पेड़ पर मादक रस के संग्रह के लिए इसका विशेष उपयोग किया जाता है। अब रोचक यह है कि यह मटका जुए या सट्टेबाजी में कैसे जा पहुँच गया? शायद मटका जुए को खेलने क

पंगा लेना

"पंगा" मूवी देखी क्या? यह पंगा पंजाबी भाषा में बहुत प्रचलित है, खासतौर पर एक मुहावरे के रूप में -- पंगा लेना। इसका अर्थ है किसी से अकारण टकराव, झगड़ा मोल लेना, अनचाही मुसीबत बुलाना। अब यह शब्द पंजाब से बाहर निकलकर हिंदी, मराठी, गुजराती आदि में भी इसी अर्थ में आम हो गया है। क्या कभी इसकी व्युत्पत्ति के बारे में सोचा है? पंजाबी में पंगा का अर्थ है काँटा, कँटीला। लक्षणा से स्वयं काँटे से उलझना बन गया पंगा लेना। व्युत्पत्ति के लिए सबसे पहले हम स्वभावतः ही संस्कृत की ओर मुड़ते हैं। सो इस पंगा को संस्कृत के पंगु (लँगड़ा, विकलांग) से व्युत्पन्न मानते हैं। किंतु आग्नेय परिवार की पुरा-मुंडा भाषा में "पङु", "पणु" शब्द इसी काँटे के अर्थ में मिलता है। बहुत संभव है पंगा का संबंध इसी पङु से हो।  भारतीय भाषाओं की यह विशेषता अद्भुत है।

मिर्च का स्वाद

अंग्रेजी में एक विशेषण है hot जिसका अर्थ गर्म के अतिरिक्त तेज, उद्दीपक, कामुक भी है। मिर्च के तीखे स्वाद के लिए भी hot का ही प्रयोग किया जाता है। हिंदी (खड़ी बोली) में भी अंग्रेजी की ही भाँति मिर्च के स्वाद के लिए स्वतंत्र शब्द-विशेष नहीं है। तीता, कड़वा या तीखा से काम चलाया जाता है किंतु कुमाउँनी, गढ़वाली, नेपाली आदि पहाड़ी भाषा वर्ग में एक शब्द है झौइ/झौलि/झलिय। यह संस्कृत के ज्वल् (जलना), ज्वाला (आग की लपट) से व्युत्पन्न है। इसी ज्वाला से बांग्ला, असमी, ओड़िया में शब्द है जॉल/झौल। भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषाओं में भी संस्कृत #ज्वाल से निष्पन्न और बांग्ला से प्रभावित झाल शब्द पूर्वी उप्र, बिहार, झारखंड, ओडिसा में प्रचलित है। खड़ीबोली को लाँघकर राजस्थान में इस झाल के पहुंचने का एक कारण यह हो सकता है कि राजस्थानी व्यापारी समूह का बंगाल और असम में पिछली सदी से पूर्व से ही आना-जाना रहा है।

अब और अभी

अब से अभी तक ... पहले अब “अब तेरा क्या होगा कालिया?”.. यह संवाद अब भी बहुत लोकप्रिय है! लेकिन समस्या भी इसी ‘अब’ से जुड़ी हुई है कि यहाँ ‘अब’ का तात्पर्य इसी क्षण से है या इसके आगे भी इसकी व्याप्ति है? ‘अब के बरस भेज भैया को बाबुल ...” इस लोकगीत में तो यह ‘अब’ साल में कभी भी हो सकता है. बाबुल जब भी भैया को बहना की ससुराल भेज दें, तभी ‘अब’ है! वस्तुतः यह ‘अब’ नाम का क्रियाविशेषण क्रिया के वर्तमान काल में होने का संकेतक तो है, किन्तु प्रयोग और प्रयोक्ता के मंतव्य के अनुसार ‘इसी क्षण’ से लेकर ‘आगे’, ‘इससे आगे’, फिलहाल’, ‘आधुनिक काल में’ आदि अनेक अर्थ दे सकता है, अर्थात अनिश्चित वर्त्तमान या निकट भविष्य में कहीं भी संकेत कर सकता है. जैसे : इसी क्षण : अब आशीर्वाद दीजिए, मैं चल रहा हूँ. आगे : सुनिश्चित कीजिए कि अब आप ऐसा नहीं करेंगे. फिलहाल : अब कोई संभावना तो नहीं है, फिर भी ... आजकल : अब यह चलन नहीं रहा. इसके बाद : अब तुम जानो,तुम्हारा काम जाने. कोई विशेष स्थिति होने पर : अब मैं क्या कहूँ, स्वयं निर्णय करो. निकट भविष्य में : अब रोज़गार के लिए कहाँ जाएं कुछ पर