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दिसंबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देखना और दर्शन

देखना  संस्कृत की धातु दृश् से हिंदी में दो शब्द परिवार बने हैं- देखना और दर्शन |  संभवतः आम जन की लोक धारा में ‘ देखना ’ शब्द प्रचलित हुआ किन्तु कुछ विशेष ,  औपचारिक स्थितियों में दर्शन शब्द ही चलता रहा | लगभग समानार्थी होते हुए भी  अब दोनों शब्दों ने अपने-अपने अलग क्षेत्र चुन लिए हैं | देखना- मूलतः तो आँखों से प्रकाश की सहायता से संपन्न होने वाला कार्य देखना  है | हम वह सब देखते हैं जो हमारे सामने होता है | अँधेरे में कोई कुछ नहीं देखता | यह इसका सीधा प्रयोग है | किन्तु इसके लाक्षणिक प्रयोग रोचक हैं और अनेक  अर्थ छवियाँ दूर-दूर ले जाती हैं |  डॉक्टर रोगी की नब्ज़ देख रहा है | ( जाँचना)  रोगी को नर्स देख रही है | ( देखभाल)  शिक्षक तुम्हारे उत्तर देख रहा है | ( जाँचना)  देखना , दूध उबलकर बिखर न जाए | ( सावधान रहना)  तुम आवेदन पत्र दे आओ , बाकी मैं देखूँगा | ( ध्यान देना)  इस चौकी को कौन देखता है आजकल ? ( चौकसी , पहरेदारी)  भगवान् सबको देखता है | ( ध्यान में रखना , विवेचन  करना)  लड़की देखने जाना है | ( पसंद करना)  एक समिति मंदिर की व्यवस्था देख रही है | (

चाय पर चर्चा : उत्तराखंड की भाषाएँ

कुमाउँनी, गढ़वाली को या ऐसी ही किसी विलुप्ति की ओर बढ़ रही भाषा को जीवित रखने पर अनेक बार अनेक मंचों से बात उठाई जाती है। उसके मानकीकरण, उपयुक्त लिपि बनाने-गढ़ने की बात शायद गंभीरता से कही जाती है । गोष्ठियों में, भाषा सम्मेलनों में या अन्यत्र। तालियाँ बजती हैं, प्रस्ताव पास होते हैं और बस! निस्संदेह किसी भी समुदाय की पहचान उसकी भाषा से शिशु-नाल संबंध से जुड़ी है। कोई भाषा मरती है तो उसे बोलने वालों की संस्कृति मरती है, उनकी पहचान ख़त्म होती है। इसलिए उसकी चिन्ता करना अपने अस्तित्व की चिंता करने जैसा ही है। सो जो लोग गढ़वाली कुमाईं जौनसारी को बचाने की चिंता कर रहे हैं, उनकी चिंता वाजिब है। लेकिन इसके लिए जो उपाय सुझाए जा रहे हैं, वे निरर्थक लगते हैं। भाषा या लिपि गढ़ी नहीं जाती, समेटी, सहेजी और बचाई जाती है। निस्संदेह आप भाषा बना लेंगे, आत्म संतुष्टि के लिए गढ़ लेंगे, उसके वैज्ञानिक नियम लिख लेंगे किंतु यदि वह प्रचलन में ही न आए तो कितने दिन, कितने लोगों में जिएगी? यह मैं ऐसे उत्साही जनों को निरुत्साहित करने के लिए नहीं कह रहा हूँ। इतिहास गवाह है कि ऐसी आविष्कृत भाषा या लिपि चल नहीं पाई।

भला से बढ़िया तक

भला की उत्पत्ति का इतिहास रोचक है. माना जाता है कि यह संस्कृत के ‘भद्र’ से बना है .. भद्र > भल्ल > भला. कुछ लोग मानते हैं कि इसी ‘भद्र’ से ‘भला’ का विलोम भाई ‘भद्दा’ भी बना है ... भद्र > भद्द > भद्दा. इसे भले को संस्कृत की एक और धातु ‘भल्’ से निष्पन्न भी माना जा सकता है जिसका अर्थ है ‘देखना’. देखा जाए तो कम-से-कम देख-भाल, देखना-भालना जैसे शब्दयुग्मों में तो भद्र की अपेक्षा ‘भल्’ अधिक निकट लगता है. संस्कृत में ‘भद्र’ के ही अनुरूप हिंदी में भी ‘भला’ के बीसियों अर्थ-छबियों वाले प्रयोग मिलते हैं. विशेषण के रूप में प्रायः इसका प्रयोग त्रुटि रहित, निर्दोष, विकार रहित, नेक, शरीफ़ आदि के अर्थ में होता है और अनेक स्थितियों में यह अच्छा का समानार्थी या बुरा का विलोम है, जैसे : अच्छा आदमी ~ भला आदमी, अच्छे लोग ~ भले लोग. यह शब्दयुग्म भी बनाता है : अच्छा-भला, भले-बुरे, भला-चंगा, भलमनसाई आदि. अव्यय के रूप में यह ‘भला’ भी अनेक अर्थछबियाँ समेटे हुए है : ·          शर्त (चाहे) : लोग भले ही निंदा करें किंतु..., भले तुम आज न मानो, कल मानना पडेगा. ·          व्यंग्य  : ये भली रही..

अच्छा - भला