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जून, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुमाउँनी में वर्षा से संबंधित अभिव्यक्तियाँ

हिंदी में 'बादल फटना' शब्द अंग्रेजी के Cloud burst का शाब्दिक अनुवाद है। बादल फटने के लिए कुमाउँनी में एक मौलिक शब्द है, "पन्यौ बान" पड़ना। बान (<वाण) का एक स्थानीय अर्थ है आकाशीय बिजली, वज्रपात। पन्यौ बान अर्थात् पानी वाला वज्रपात। इसमें अचानक किसी छोटे क्षेत्र में भीषण वर्षा होती है जो वज्रपात से कम विनाशक नहीं होती, जैसे 2013 की केदारनाथ त्रासदी। ऐसी धारासार वर्षा होती है कि लगता है जैसे बादलों के थैले का मुँह अचानक खुल पड़ा हो। सारी वर्षा एक ही जगह ऐसे गिरती है जैसे अनाज के बोरे को उलटा जा रहा है। इस विनाशकारी वर्षा के लिए लोक ने बहुत सार्थक, सटीक नाम चुना है : "पन्यौ बान" अर्थात् पानी वाला वज्रपात।  कुमाउँनी में वर्षा से संबंधित कुछ अन्य अभिव्यक्तियाँ इस प्रकार हैं-- बर्ख लागण (वर्षा प्रारंभ होना) द्यो लागण (द्यो< सं. देव:=वर्षा) झमझमाट हुण (हल्की वर्षा) झड़ पड़ण (कुछ दिन निरंतर वर्षा) तौड़ाट पड़ण (बड़ी बूँदों वाली तेज वर्षा) अनेश-मनेश हुण (वर्षा के बादलों से अंधकार होना) गाड़-खाड़ हुण (वर्षा से नदी नालों का भर जाना) भुम्क फुटण (वर्षा से भूमिगत जल

भाषाई या भाषायी

स्वरांतता हिंदी की स्वाभाविक प्रकृति है। गया/ गई में एक स्थान पर श्रुति के रूप में य् व्यंजन और दूसरे पर शुद्ध स्वर ई आने का एक विशेष कारण है, जिसकी चर्चा अन्यत्र की गई है। गई हुई को गयी हुयी लिखने वाले इस 'यी-संप्रदाय' का प्रभाव संक्रमित होकर अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है; जैसे: स्थायी, अनुयायी, उत्तरदायी, विनयी, मितव्ययी जैसे शब्दों को स्थाई, अनुयाई, उत्तरदाई, विनई, मितव्यई आदि लिखा जा रहा है।  इधर कुछ हिंदी के लेखकों, शिक्षकों, भाषाविदों, वैयाकरणों को तक एक शब्द लिखते हुए पाया जा सकता है, "भाषायी"। यह अति सतर्कता का परिणाम है । इन्हें यह तो मालूम है कि स्थाई, उत्तरदाई जैसे शब्द अशुद्ध हैं, इनमें ई के स्थान पर यी आना चाहिए। तो इसका उपयोग करते हुए वे भाषाई को भाषायी लिख देते हैं, और बेचारी भाषा घुटकर रह जाती है। यह मान लिया जाना चाहिए कि जान-बूझकर अशुद्धि कोई नहीं करता, अशुद्धियों का भी अपना व्याकरण होता है। यहाँ भी मुख्य कारण यह है कि शब्द की मूल संरचना ज्ञात न होने से ई के स्थान पर यी और यी के स्थान पर ई आ रही है। जब यी मूल शब्द का ही घटक हो, अर्थात उसकी वर्तनी म

माजरा

मिर्ज़ा ग़ालिब की एक ग़ज़ल की पंक्ति है "या इलाही ये माजरा क्या है।"   मेरे एक मित्र माजरा डबास के हैं। हमेशा सूत्रों में बात करते हैं। पूछा तो उन्होंने बताया कि उनका माजरा वह माजरा नहीं है जो ग़ालिब साहब की समझ में नहीं आया। हम हैरान थे कि जब ग़ालिब साहब नहीं समझे तो हम क्या समझें। तभी ग़ालिब साहब की फुसफुसाहट सुनाई दी: "मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ  काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है" ग़ालिब साहब, मुद्दआ तो माजरा है और आप पहले ही इलाही का वास्ता देकर फ़रमा चुके हैं कि माजरा क्या है? बहरहाल खोज जारी रही तो पाया कि माजरा नाम के अनेक गाँव हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब में विशेष रूप से मिलेंगे। कुछ उदाहरण हैं: लाखण माजरा, लावा माजरा, माजरा डबास, राणामाजरा, बामण माजरा, भोडवाल माजरा, खलीला माजरा, नैन माजरी, नूना माजरा, भैणी माजरा, मोहम्मदपुर माजरा, माजरा महताब, समसपुर माजरा, अड्डू माजरा इत्यादि।  माजरा शब्द भी ग्राम वाचक है और मूलतः अरबी "मज़रा" से है। नुक़्ता हट जाने पर रह गया ज । अरबी में मज़रा का अर्थ है : खेती की जगह, खेत, खेती, वह भूमि जो खेती के योग्

गिरना- ढहना

कुछ राज्यों में बुलडोज़र आंदोलन की अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद एक पत्रकार मित्र ने पूछा है, "बुलडोज़र से मकान ढहाए गए या गिराए गए?" वे गिरना-गिराना और ढहना-ढहाना में अंतर जानना चाहते हैं। गिरना और ढहना में भेद करना इतना कठिन तो नहीं है, फिर भी इस बीच माध्यमों में छपी या बोली गई बातों से ऐसा अवश्य लगता है कि कहीं भ्रम की स्थिति है। गिरना (प्राकृत *गिरति > गिरइ या संस्कृत √गल् गलन से व्युत्पन्न अकर्मक क्रिया है और गिरने का काम स्वत: होता है (ओले गिरे)। गिराना सकर्मक है। यह काम किसी माध्यम से होता है। (तुमने चाबी कहाँ गिरा दी?)। इसी प्रकार ढहना (संस्कृत ध्वंस > ध्वंसन से व्युत्पन्न)अकर्मक क्रिया है (बाढ़ से दो मकान ढह गए) और ढहाना सकर्मक (नगर निगम ने दो मकान ढहा दिए) । यहाँ तक तो ठीक है। गिरना में गिरने वाली वस्तु ऊँचाई से धरातल की ओर या धरातल पर गिरती है, बिजली गिरती है और आँसू भी गिरते हैं। गिरने वाली वस्तु उसी रूप में रह सकती है, जैसे चाबी गिरी। आम गिरे। ढहना में ऐसा नहीं होता। ढहने वाली वस्तु नष्ट-भ्रष्ट हो सकती है, रूप और आकार में बिगड़ सकती है, मलबे में बदल सकती ह

विघ्न, बाधा और अड़चन

विघ्न, बाधा और अड़चन ये तीनों अब समानार्थी की भांति हिंदी में प्रयुक्त हो रहे हैं और एक दूसरे के स्थान पर वैकल्पिक रूप से इनका प्रयोग किया जाता है किंतु तीनों में न केवल रचना की दृष्टि से, अपितु अर्थ की दृष्टि से भी सूक्ष्म अंतर है।  विघ्न में 'घ्न' सबसे डरावना है। यह संस्कृत की √हन् धातु से बना है जिसका अर्थ है मारना। शत्रुघ्न (शत्रु को मारने वाला), कृतघ्न (किए हुए उपकार को न मानने वाला) शब्दों में यही घ्न है। घ्न से पहले वि उपसर्ग उसे और विशेष तथा डरावना बना देता है। विघ्न में तीव्रता अधिक है। यह ऐसी बाधा है जो किसी काम को संपन्न करने से पूरी तरह रोकने का प्रयास करती है। बाधा संस्कृत √बाध् धातु से है जिसका अर्थ है दबाना, सताना, पीड़ा पहुँचाना। अमरकोश बाधा को पीड़ा का ही पर्याय मानता है। यह पीड़ा मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की हो सकती है। ऐसी मानसिक/शारीरिक पीड़ा जो रुकावट पैदा करे, वह बाधा है। हिंदी में अब विघ्न और बाधा में कोई अंतर नहीं किया जाता। दोनों को पर्याय की भाँति और शब्द युग्म के रूप में भी प्रयोग किया जाता है: विघ्न-बाधा। अड़चन विघ्न-बाधा से कुछ कम तीव्रता की

फन-फ़न, कफ-कफ़ और फ़ल-फ़ूल

फारसी, अरबी से हिंदी में आए कुछ शब्दों के लिए देवनागरी वर्तनी में नुक्ता लगाने न लगाने के बारे में बड़ी बहस है, जिसका समाधान हो नहीं पाता। दो पक्ष हैं। एक के अनुसार फ़ारसी, अरबी, तुर्की (FAT) के शब्दों का ही पूर्ण बहिष्कार किया जाए। ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। जब फ़ारसी, अरबी के शब्द ही नहीं होंगे तो हमें नुक़्ते की जरूरत क्यों पड़ेगी। वे लोग भूल जाते हैं कि हिंदी में प्रचलित फ़ारसी, अरबी के शब्द अब हिंदी कि शब्दावली की अपनी संपत्ति हैं। ठीक ऐसे ही जैसे हिंदी या भारतीय मूल के शब्द अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा की। नुक्ता फ़ारसी, अरबी के लिए ही नहीं, अंग्रेजी से आगत शब्दों के लिए भी ज़रूरी होता है। यह वर्ग FAT मूल के शब्दों का बहिष्कार तो करता है किंतु अंग्रेजी मोह के कारण अंग्रेजी शब्दों का बहिष्कार नहीं करता; हाँ, नुक्ते का बहिष्कार वहाँ भी करता है। दूसरा धड़ा कम से कम ज़ और फ़ वाले शब्दों में यथास्थान नुक्ता लगाए जाने का सुझाव देता है क्योंकि इन ध्वनियों के अनेक लघुतम व्यतिरेकी युग्म हिंदी में उपलब्ध हैं और नुक्ते के बिना अर्थ का अनर्थ हो जाने की पूरी संभावना रहती है।  आप साँप के फ

जातीय गालियाँ और अपशब्द

किसी भी भाषा में समाज भाषा-वैज्ञानिक नियंत्रण बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। इनसे भाषिक नियमों में विचलन होता है, अर्थ विस्तार होता है, अपकर्ष होता है और सबसे बड़ी बात कि शब्द प्रयोग पर नियंत्रण या नियमन भी हो जाता है । हिंदी में भी अनेक समाज भाषा वैज्ञानिक विचलन देखे जा सकते हैं। भाषा विशेष के शब्द भंडार के सामान्य से लगने वाले शब्दों में भी वक्ता के उद्देश्य, टोन और उद्दिष्ट पात्र के प्रति वक्ता के दृष्टिकोण के अनुसार अर्थ में विशेष परिवर्तन आ जाता है। इसका एक आयाम है- जातीय गालियाँ और अपमानजनक शब्द। भारत चूँकि भौगोलिक विविधताओं, विविध भाषाओं और मानव समुदायों का देश है, इसलिए इस प्रकार के विविध शब्द प्रत्येक भारतीय भाषा में प्राप्त होते हैं। राज्यों और क्षेत्रों के अनुसार कुछ अपमानजनक भाषिक अपकर्ष इस प्रकार हैं। संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए जो अपमानजनक शब्द गढ़े गए हैं उनमें प्रमुख हैं - गौ पट्टी, गाय पट्टी, गोबर पट्टी और अंग्रेजी में काऊ बेल्ट। विडंबना यह है कि इन शब्दों को प्रचारित करने में इसी पट्टी के मीडिया ने भी कसर नहीं छोड़ी।  कथित गाय पट्टी के पूर्वी क्षेत्र के निवासियों के

स्वेद से पसीना वाया स्वेटर

बचपन में स्वेटर को अपनी उम्र के लोग 'स्वीटर' कहते थे। इसे हमने सीधे-सीधे अंग्रेजी के 'स्वीट' से जोड़ा (बच्चों को स्वीट शब्द से यों भी अधिक मोह होता है!)।‌ जो पहनने में अच्छा लगे, जाड़ों में जिसे पहनना मीठा लगे, वह स्वीटर। आगे चलकर स्वेटर शब्द भी जानकारी में आया तो हमने सोचा स्वीटर > स्वेटर। नाम ही तो बदला है, गुण स्वभाव तो मीठा ही है! जब शब्दों की व्युत्पत्ति खोजने का कीड़ा कुछ ज्यादा ही काटने लगा तो पता लगा कि हमारा स्वीट मीठा ना होकर कुछ और ही स्वाद का है। संस्कृत में एक धातु है √स्विद्  जिसका अर्थ है पसीना होना, गीला होना आदि। इसी शब्द से बना है स्वेद, अर्थात पसीना, श्रम जल। स्वेद के लिए लोक में अधिक प्रचलित पसीना शब्द की ओर चलें। कुछ लोग पसीना को फ़ारसी का मान लेते हैं जो ठीक नहीं है। यह पसीना तो सीधे-सीधे स्वेद से बना है। स्वेद से प्र उपसर्ग लगाकर प्रस्वेद, प्रस्वेदन से पसीना; या दूसरा मार्ग है - प्र+स्विद्+क्त = प्रस्विन्न > पसिन्नअ > पसीना। संस्कृत में जो स्वेद है, वही अवेस्ता भाषा में ह्वेद हो जाता है। अब थोड़ा स्वेटर की ओर मुड़ा जाए। आश्चर्य नहीं होना

बादाम कथा

बादाम, एक तरह का मेवा, भूमध्यसागरीय जलवायु का पेड़ है और मूलतः ईरान और उसके आसपास के देशों की वनस्पति है। यह जंगली वृक्ष था और सबसे पहले पालतू बना लिए जाने वाले पेड़ों में इसकी गिनती होती है। माना जाता है कि लगभग 3000 से 2000 ईस्वी पूर्व में इसे पालतू बनाकर उगाया जाने लगा था। जहाँ तक बादाम शब्द की व्युत्पत्ति का प्रश्न है, यह ईरान की पहलवी भाषा में वादाम wādām / वुदाम wudām (अर्थात बादाम का पेड़ या फल) से बताई गई है। यही वाताम फ़ारसी में बादाम बन गया। फ़ारसी में बादाम होने के कारण बहुत से लोग इसे /बा-/ उपसर्ग से बना शब्द मानते हैं, क्योंकि हिंदी-उर्दू में बा- उपसर्ग वाले बहुत से शब्द प्रचलित हैं, इसलिए बा+दाम अर्थात दाम (मूल्य) वाला, मूल्यवान फल। यह व्युत्पत्ति भ्रामक है।  संस्कृत में इसी वादाम से वाताम या वाताद शब्द आया जान पड़ता है। पहलवी वादाम से ध्वनि साम्य के कारण और वात रोगों में लाभदायक होने के कारण इसको वाताम कहा गया और वात रोग की चिकित्सा से जोड़कर वाताद (वाताय वातनिवृत्तये अद्यते इति, अद् + घञ्) । नहीं लगता कि संस्कृत वाताम से यह शब्द ईरान में जाकर वादाम बना गया होगा क्योंक

चंदन और अफीम की रिश्तेदारी

अजीब बात है ना! कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। कहाँ चंदन-सा पवित्र काष्ठ और कहाँ अफीम-सा नशा। किंतु चोंकिएगा नहीं, इन दोनों का मूल एक ही है। और यह मैं किसी चंडू खाने में बैठकर नहीं लिख रहा हूँ। चंडूखाने से याद आया, आप चंडू का अर्थ तो जानते होंगे। चंडू है अफीम और चंडू शब्द का विकास हुआ है द्रविड़ मूल के चंटू शब्द से। चंटू का अर्थ है घिसना, लेप बनाना या सना हुआ लेप। एक विशेष काष्ठ के सुगंधित लेप के कारण ही यह चण्टू बना चण्डन > चन्दनम्> चन्दन। पश्चिम की ओर इसकी यात्रा संदल (फ़ारसी) और सैंडलवुड के रूप में हुई और पूर्व की ओर कोरिया, जापान तक यह चंटू > चंडू के रूप में पहुंचा। अंतर यह भी रहा की पश्चिम की ओर तो यह चंदन का ही पर्याय बना रहा और इसकी सुगंध बनी रही किंतु पूर्व की ओर नशीले पदार्थ अफीम के लेप के लिए प्रयुक्त हुआ, जो पीने के लिए प्रयुक्त होता है। गंध भी बदली, अर्थ भी। चीन से चंडू पुनः पश्चिम की ओर एक स्वतंत्र शब्द के रूप में पहुँचा और पश्चिम से फिर भारत लौटा। अब भारत के पास एक ही माता-पिता की दो संतानें हैं - चंदन और चंडू।  यह आप पर है कि आप इसे चंड़ूखाने की गप समझें या शब्

गृह-ग्रह, घर-मकान, अनुग्रह और अनुगृहीत

गृह तत्सम शब्द है, अर्थ है- घर, निवासस्थान, बसेरा। हिंदी में सामान्यत: देखा जाता है कि गृह अकेला बहुत कम प्रयुक्त होता है। मैं अपने गृह गया, गृह से आया ऐसा नहीं कहा जाता; कहा जाता है: मैं घर गया, घर से आया। गृह तो प्रायः समास के रूप में प्रयुक्त देखा जाता है, जैसे गृह कार्य, गृह मंत्री, गृह प्रवेश, गृह सचिव इत्यादि। इन स्थितियों में घर कार्य, घर मंत्री, घर सचिव, घर प्रवेश नहीं कहा जाएगा। गृहस्थ, गृही और गृहिणी इसी तरह से बने हैं। घर गृह से बना तद्भव शब्द है। इसका प्रयोग क्षेत्र गृह से अधिक विस्तृत है। घर  निवास, शरण, रहने-खाने की जगह या फिर निजी संपत्ति को सुरक्षित रखने का एक स्थान  है। घर या गृह किसी घर गृह के भीतर भी हो सकते हैं एक इकाई के भीतर की इकाइयाँ। जैसे गर्भगृह, पूजा गृह, पूजा घर, रसोईघर, स्नानघर, सामान घर। कुछ घरों में आप रहते नहीं, अधिक समय भी नहीं बिताते। बस, काम संपन्न होने पर निकल पड़ते हैं; जैसे - जलपान गृह, पूजा गृह, स्नान गृह, डाकघर, तारघर, टिकिटघर, बिजलीघर। घर अलग से स्वतंत्र शब्द के रूप में या यौगिक रूपों में प्रयुक्त हो सकता है। जैसे: मेरे घर आइए।  गाँव में कितने

भाव, मूल्य और दर

संस्कृत में √भू (सत्तायाम्) से घञ् प्रत्यय जोड़कर भाव बनता है जिसका अर्थ है: होना, अस्तित्व, स्थिति, सत्ता। हमारी प्रवृत्ति, स्वभाव और स्वरूप भी भाव के अंतर्गत आ जाते हैं। भाव किसी के मन में उठने वाले मूल विकार हैं जो प्यार, स्नेह, लालसा, सहानुभूति, संवेदना, सुख के भी हो सकते हैं और आश्चर्य, क्रोध, दुख, ईर्ष्या, वासना के भी।  साहित्य शास्त्र में रस निष्पत्ति के उपकरणों के रूप में स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव, व्यभिचारी भाव आदि मानसिक संकल्पनाएँ हैं जो रस निष्पत्ति के हमारे मानसिक अनुभव में सहायक होती हैं और हम कवि-कलाकार के भावों से एकात्म हो पाते हैं। भावों का आधिक्य हमें द्रवित कर सकता है। प्रेमी-प्रेमिका के संयोग, वियोग से उत्पन्न होने वाले सुख-दुख जो अभिनय की मुद्राओं, नृत्य मुद्राओं या गीत-संगीत से प्रस्तुत किए जाएँ वे भी भाव हैं। सामान्य बोलचाल में नाज-नखरे या चोंचले करना भाव दिखाना है; कोई अधिक करे तो कहा जाता है भाव खा रहा है, कुछ करना पड़ेगा इसके लिए। दूसरे भाव का संबंध मन के अमूर्त अनुभवों से नहीं, मूर्त जगत की ठोस वस्तुओं के क्रय-विक्रय, मूल्य और दर से है । ये भाव

लगभग, प्रायः और बहुधा के आसपास

लगभग, प्रायः बहुधा और  आसपास ये सभी अव्यय अनिश्चितता के द्योतक हैं। लगभग में पूर्व पद लगना क्रिया से बना है और अगला उसी का पुनरुक्त शब्द है। इस प्रकार 'लगभग' एक द्विरुक्त शब्द है। जब हम किसी एक संख्या या क्रिया व्यापार को निश्चित रूप में नहीं बता सकते तो लगभग का प्रयोग करते हैं। ~ 'लगभग पचास लोग' का अर्थ है: पचास के आसपास, 2/4 कम या अधिक।  संकेतित इकाई (संज्ञा) के पूर्व यह लगभग संख्यावाची विशेषण के प्रविशेषण का प्रकार्य करता है और संकेतित संज्ञा के बाद आने पर लगभग से पूर्व कारक प्रत्यय 'के' आता है; जैसे:  ~लगभग 20 आम थे । ~बीस के लगभग आम थे।  ~लगभग सभी आम कच्चे थे। अर्थ समान होते हुए भी वाक्य संरचना में कुछ अंतर दिखाई पड़ता है। अब इन वाक्यों को देखें: ~पांडुलिपि लगभग पूरी हो गई । ~मकान लगभग तैयार है । ~तुम्हारा उत्तर लगभग सही है । ऐसी स्थिति में 'लगभग' शुद्ध रूप से क्रिया विशेषण का प्रकार्य करता है और इसकी अन्विति क्रिया के निकट बैठती है। लगभग पूरा होना या लगभग तैयार होना का आशय है, बस थोड़ी सी कसर रह गई है अन्यथा कार्य पूरा समझें। ऐसी स्थितियों में लगभ

बम पुलिस

आज़ादी से लगभग 150 वर्ष पहले के कालखंड में एक शब्द बहुत प्रचलित था "बम पुलिस"। आज लोग इसे बम निष्क्रिय करने वाला पुलिस दस्ता समझेंगे, किंतु तब इसका विशेष अर्थ में प्रयोग होता था।  भारत में परंपरा से लोटा लेकर खुले में शौच जाने की प्रथा थी। कुछ शहरों में अंग्रेजों ने खुले में शौच का चलन रोकने के लिए कुछ क्षेत्रों को घेराबंद कर दिया। उस घेरा बंद इलाके में सार्वजनिक शौचालय बनाए गए और उनकी व्यवस्था के लिए कुछ कर्मी रखे गए । घेराबंद शौचालयों को bound place कहा गया। परंपरा से खुले में शौच जाने के आदी लोगों पर नियंत्रण के लिए, उन्हें घेर-घार कर सार्वजनिक शौचालयों की ओर भेजने के लिए जिन कर्मचारियों की व्यवस्था की गई उन्हें बोंड प्लेस पुलिस कहा गया और यही शब्द लोक में बम पुलिस बन गया। यह शब्द आज भी सफाई कर्मियों के लिए प्रयोग में है। पुराने लोगों से सुना जाता है कि मल निकासी के अतिरिक्त लोगों को खुले में शौच के लिए जाने से बलपूर्वक रोकना, उन्हें दंडित करना भी उनका काम था। संभवतः इस काम को पुलिस वाले काम से जोड़कर बाउंड प्लेस बम पुलिस बन गया हो। पहाड़ में बम पुलिस की कहानी थोड़ा सा भिन

फ़्रिंज को फ़्रिंज ही रहने दें, कोई नाम न दें

~गुरुजी इंद्र का अर्थ? ~इंद्र का अर्थ- मघवा।  ~मघवा क्या? ~मघवा माने विडोजा। ~विडोजा? ~हाँ-हाँ, इंद्र। बेचारा शिष्य सिर न खुजाए तो क्या करे। इधर कुछ दिनों से "फ़्रिंज एलिमेंट्स" के हिंदी समानार्थक पर हो रही बहस से यह 'इंद्र- मघवा- विडोजा' प्रसंग याद आ गया। समय के साथ-साथ नए शब्द आते हैं और भाषा को संपन्न करते हैं। हाल की घटनाओं ने सभी भारतीय भाषाओं को एक शब्द दिया है: "फ़्रिंज एलिमेंट्स"। इसके हिंदी पर्यायों के बारे में विद्वानों में चर्चा हो रही है। अर्थ ढूँढने वालों के दो धड़े दिखाई पड़ रहे हैं। एक जो राजनीतिक तंज के रूप में इसे ले रहे हैं। वे लोग इसका अर्थ लंपट, धूर्त, बाहरी, महत्वहीन कह रहे हैं। दूसरे धड़े के लोग हैं जो अर्थ तो ईमानदारी से ढूँढ़ रहे हैं लेकिन तैरना न जानने से भाषा सागर में छटपटा रहे हैं। ऐसे लोग इसके अनुवाद में जो शब्द दे रहे हैं वे कुछ इस प्रकार हैं: आनुषंगिक तत्व, बाहरी तत्व, किनारे के लोग, अनधिकृत तत्व आदि। कुछ समझदार लोग सुरक्षित मार्ग के तौर पर इसे फ़्रिंज तत्व ही कह रहे हैं। ठीक भी है क्योंकि यह हिंदी में ही नहीं, अन्य भाषाओं में भ

मूर्ति और विग्रह

मूर्ति और विग्रह के अर्थ में सामान्यतः कोई अंतर नहीं है। दोनों का प्रयोग आकृति, स्वरूप, शक्ल-सूरत के अर्थ में किया जाता है। किसी की आकृति के सदृश गढ़ी हुई प्रतिमा भी मूर्ति ही है। मूर्ति और विग्रह शब्दों के प्रयोग में कहीं कुछ स्थितियों में अवश्य अंतर मिलता है। जैसे मूर्ति किसी जीवित/दिवंगत व्यक्ति या पशु-पक्षी की भी हो सकती है, विग्रह आराध्य का होता है। मूर्ति को घर , आँगन, चौराहे या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर स्थापित किया देखा जा सकता है, विग्रह के लिए निर्धारित स्थान घर का पूजा स्थल या मंदिर का गर्भगृह ही हो सकता है। किसी देवता की मूर्ति, जब शास्त्रोक्त विधि से मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित हो जाती है, तब वह अमुक देवता का विग्रह कहा जाता है। मूर्ति भगवान की होती है और विग्रह मानी जाने वाली मूर्ति में स्वयं भगवान ही माने जाते हैं। यह भक्त के ऊपर है कि वह किस भाव को ग्रहण करता है। 

हो गया बंटाढार

हम ज्यों-ज्यों गाँव देहात के लोक जीवन से कटकर शहरी होते जा रहे हैं त्यों-त्यों लोक से जुड़े अनेक भाषिक शिष्टाचार भी हमारे लिए अबूझ होते जा रहे हैं। मुहावरों की बात करें। सैकड़ों मुहावरे गाँव की मिट्टी से, वहाँ के जनजीवन से उत्पन्न हुए हैं। जिन्हें आज हम जानते भी हों तो भी नहीं कहा जा सकता कि आने वाली पीढ़ी उनके मूल को समझ सकेगी, उनकी सराहना कर सकेगी। ऐसा ही एक मुहावरा है बंटाढार हो जाना, बंटाढार कर देना। बंटा पीतल के बड़े बर्तन को कहा जाता है जो पानी लाने, उसे भंडारित करने तथा अन्य अनेक घरेलू या सामाजिक कामकाज में प्रयुक्त होता था। राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में गांवों में अब भी कहीं-कहीं बंटा दिखाई पड़ता है। हरियाणा का एक प्रसिद्ध लोकगीत आज भी गाया जाता है मेरे सिर पै बंटा टोकणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल मैं पतळी सी कामणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल।" बंटा के ढलक जाने से (ढलना/ढालना > ढाल > ढार > धार), लुढ़क जाने से उसमें रखी हुई वस्तु, पेय या खाद्य पदार्थ बिखर जाएँगे। बंटाढार होने में अधिक और संभवतः अपूरणीय हानि की संभावना है। इसलिए मुहावरा बना बंटाढार (बंटाधार) कर

चोर, चोट्टा और उचक्का

चोर संस्कृत √चुर् (चोरी करना) से बना है चोर, चौर। चोर शब्द पालि, प्राकृत, अपभ्रंश से चलकर कोंकणी, मराठी गुजराती सहित उत्तर और पूर्व भारत की सभी आर्य भाषाओं में विद्यमान है। चोर वह है जो दूसरों की चीजें ऐसे उठा ले कि किसी को पता ही न लगे, छिपकर पराई वस्तु का अपहरण करे । स्वामी की अनुपस्थिति या अज्ञान में छिपकर कोई चीज ले जानेवाला। चोर परिवार में अनेक मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं। चोर की दाढ़ी में तिनका (चोर का सदा सशंकित रहना ), चोर के घर छिछोर, चोर के घर ढिंढोर (पक्के बदमाश से किसी नौसिखुए का उलझना)। चोर के घर में मोर पड़ना (धूर्त के साथ धूर्तता होना)। चोर के पाँव कितने (चोर की हिम्मत कम होती है)। कुछ लोग कामचोर, मुँहचोर तो होते ही हैं, चितचोर भी होते हैं और कन्हैया जैसे चितचोर लोगों के लाडले भी। चोट्टा हिंदी में -टा प्रत्यय किसी को कमतर बताने के लिए (हीनार्थ द्योतक) है; जैसे: रोम + टा - रोंगटा, काला + टा- कलूटा। इसी प्रकार चोर + टा- चोरटा। चोरटा से ही बनता है चोट्टा, छोटी-मोटी चोरियाँ करने वाला, उठाईगीर। स्त्रीलिंग चोरटी, चोट्टी। उचक्का भी चोर ही है, अपने करतब में अधिक फुर्तीला। ऐसा

पाजी प्यादा

पाजी   संस्कृत मूलक शब्द है। अर्थ है: दुष्ट, लुच्चा, ढीठ, बदमाश। पामर, अधम, नीच, धूर्त। इसे कुछ विद्वान संस्कृत पद्य (पैर संबंधी) से मानते हैं, इस तर्क पर कि पद्य/पदाति (पैदल सैनिक) पहले लूटपाट आदि से लोगों को कष्ट पहुंचाते थे। इसलिए पाजी का अर्थ दुष्ट हो गया। पद्य (पैदल) से पाजी लाक्षणिक अर्थ में लगता है, यह मानने पर कि पैदल सिपाही लूटपाट किया करते थे, जबकि संस्कृत में पाय्य का शाब्दिक अर्थ ही दुष्ट है। पुरानी कुमाउँनी में एक संज्ञा शब्द मिलता है - पाजा (=झगड़ा, बखेड़ा)। पाजा से विशेषण बनता है, पाजी (झगड़ालू, ठग)। नेपाली में भी यह शब्द है- 'पाजा गर्नु' (to cheat: Turner)।

टें , टेंट , टेंटुवा, टंटा •••

टें - (देशज) तोते की बोली , टें-टें मुहा. टेँ- टेँ करना = व्यर्थ की बकवाद। हुज्जत ।  टें होना या बोल जाना = चटपट मर जाना जिस प्रकार बिल्ली के पकड़ने पर तोता एक बार टें शब्द बोलकर मर जाता है । झट प्राण छोड़ देना ।  टेंट - (देशज) धोती की वह गाँठ जो कमर पर खोंसी जाती है और जिसमें लोग कभी रुपया-पैसा भी रखते हैं। अंटी, रुपये रखने की छोटी थैली जो कमर पर या अंतर्वस्त्र के नीचे छिपाकर रखी जाती है । मुहावरा: टेंट में कुछ होना = पास में कुछ रुपया पैसा होना । टेंट ढीली करना = रुपए निकालना। टेंट गरमाना = हाथ में रुपया आना। टेंटुवा - गले में सामने की ओर निकली हुई हड्डी, काकली। टेंटुवा दबाना = गला घोंटना । टंटा   (सं॰ तण्डा = आक्रमण) - हलचल, दंगा, बखेड़ा, उपद्रव। दंगा मचाना ।  आडंबर, प्रपंच, बखेड़ा, खटराग, लंबी चौड़ी प्रक्रिया । जैसे:, इस दवा के बनाने में तो बड़ा टंटा है । मुहावरा- टंटा खड़ा करना = उपद्रव करना । झगड़ा मचाना।

स्वादिष्ठ स्वादिष्ट

कुछ तत्सम शब्दों की वर्तनी के बारे में भ्रम होता है कि इन के अंत में ट है या ठ? मोटी पहचान यह है कि यदि विशेषण उत्तमावस्था (Superlative degree) में है तो '-ष्ठ'(स्वादिष्ठ, श्रेष्ठ, बलिष्ठ , गरिष्ठ, कनिष्ठ); अन्यथा '-ष्ट' (इष्ट, शिष्ट, अनिष्ट, अदिष्ट, अदृष्ट, क्लिष्ट, परिशिष्ट, निकृष्ट, स्वादिष्ट)। स्वादिष्ठ✓ठीक है, किंतु अधिक प्रचलन को देखते हुए स्वादिष्ट को तद्भव स्वीकारा जा सकता है। यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि हिंदी में स्वादिष्ट शब्द स्वादिष्ठ की भाँति उत्तम अवस्था का विशेषण नहीं रह गया। अब स्वादिष्ट का अर्थ 'सबसे अधिक स्वाद वाला' नहीं, वरन् 'स्वाद वाला' ही रह गया है। तुलनात्मकता के लिए हम -से स्वादिष्ट, -की अपेक्षा स्वादिष्ट, -सबसे स्वादिष्ट कहेंगे।विशेषणों की तुलनावस्था (Comparative degree) या उत्तमावस्था के लिए यही हिंदी की अपनी व्यवस्था है:  विशेषण के पहले 'की अपेक्षा', 'से', 'तुलना में' या 'सबसे' जोड़कर। जैसे सुंदर (तुलनावस्था):- से सुंदर, -की अपेक्षा सुंदर, -की तुलना में सुंदर;  (उत्तमावस्था) -सबसे सुंदर, सर्व सुंद