सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

॥भद्रं भद्रं वितर भगवन्॥

॥ भद्रं भद्रं वितर भगवन्...॥ पोस्ट का आशय किसी की भावनाओं को चोट पहुँचाना यह किसी उत्सवी मन का मजाक उड़ाना नहीं है. भद्रा के साथ ज्योतिषियों ने इतना डरावना माहौल कैसे बना दिया पता नहीं. लोगों ने राखी बाँधने से ही परहेज नहीं किया, कुछ लोगों ने तो फेसबुक में भी भद्रा बीतने के बाद ही शुभकामनाएँ देना शुरू किया!  . मिथकों की बात छोड़ दें तो भाषिक तर्क यह कहता है कि 'भद्रा' को डरावना नहीं होना चाहिए. जो शब्द भद्र (=भला) से बना हो, उसमें अशुभ की आशंका कैसी! संस्कृत कोष देखें तो इस भद्रा के बीसियों अर्थों में अशुभ तो कोई भी नहीं है. ''सर्वे भद्राणि पश्यन्तु...",  "भद्रं-भद्रं वितर भगवन् ..." जैसी सूक्तियाँ; भद्रे!, हे भद्रमुख! -- ऐसे प्यारे विशेषण हैं कि पूछिए मत. 'भद्रा' कुछ देवियों का नाम है और गाय को भी भद्रा कहा जाता है.  . एक बात ज़रूर रोचक है. हिंदी मे इस 'भद्र' से ही दो परस्पर विलोम शब्द बने हैं. भला और भद्दा! भद्र > भल्ल > भला; और भद्र > भद्दअ > भद्दा ! रक्षाबंधन की शुभकामनाएँ।  धरती माँ ने मामा को इस साल विशेष राखी भेजी है।

गरीब की गुदड़ी अमीर का पैच वर्क

गूदड़ शब्द संस्कृत √गुध् (वेष्टन, ढकना, लपेटना) धातु से है। गूदड़ का अर्थ है बहुत फटे-पुराने कपड़े जो किसी काम के न रह गए हों। गूदड़ों में से कुछ काम के टुकड़े निकाल कर उन्हें थेगली (टल्ली) के रूप में आपस में जोड़कर सिलाई करके जो चादरनुमा कपड़ा बनाया जाता है उसे गुदड़ी या गूदड़ी कहते हैं। गुदड़ी गरीबों के ओढ़ने-बिछाने के काम आती है। कुछ साधु सन्यासी केवल गुदड़ी ही लपेटते थे इसलिए उन्हें गुदड़ी साईं या गुदड़ी बाबा, गुदड़ी शाह कहा जाता था। आज फ़ैशन की दुनिया में भी गुदड़ी चलती है, नाम बदलकर।रंग-बिरंगे पैबंदों से बने अनेक प्रकार के वस्त्र, चादरें, रजाइयाँ जिन्हें पैच वर्क कहा जाता है! बहुत महंगे बिकते हैं पैचवर्क यानी गुदड़ी के वस्त्र। पुराने शहरों, कस्बों में गुदड़ी बाज़ार या गुदड़िया बाज़ार नाम के मोहल्ले मिल जाएँगे जिनमें फटे-पुराने वस्त्र बेचे-खरीदे जा सकते थे। गुदड़ी बाज़ार से आशय है टूटी-फूटी तथा फटी-पुरानी वस्तुओं का संग्रह, पुरानी चीज़ों का बाज़ार, विभिन्न बेमेल चीजों का संग्रह, इधर-उधर से जुटाई हुई चीजों का बाज़ार जिसे कहीं कबाड़ी बाज़ार भी कहा जाता है। गरीब, साधनहीन

मार-धाड़

मार-धाड़  मारधाड़ हिंदी का युग्म शब्द है जिसके दोनों घटक सार्थक हैं और परस्पर पूरक भी। मार के अनेक अर्थों में से दो अर्थ सामान्यतः अधिक प्रचलित हैं- पीटना-कूटना और जान से मार देना। इसके प्रचलित युग्म हैं - मार-काट, मार-पीट और मार-धाड़। मार-काट या मार-पीट तो मारना के साथ काटना, पीटना के समास हैं। मार-धाड़ के बारे में कहीं कहा गया है कि किसी अंचल विशेष में धाड़, धाड़ा से बना है। धाड़ा का अर्थ डकैती, लूटपाट आदि हैं। उनके अनुसार डाकू जब धाड़ा करने आते हैं तो गोलीबारी और अफरा-तफरी में लोगों की जानें भी जा सकती हैं। इसलिए शब्द बना मारधाड़। मारधाड़ की यह व्याख्या सीधे अर्थ के लिए बहुत दूर भटकने का उदाहरण है, दूर की कौड़ी बुझाना भी कह सकते हैं।  मारधाड़ वाले 'धाड़' की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जा सकती है। धाड़ अनुकरण वाची शब्द हो सकता है, जैसे धड़ाम। धड़ाम-से गिर पड़ा को धाड़-से गिर पड़ा भी कहा जाता है। मार-काट मचाई तो मरने-पिटने वाले धाड़-से नीचे गिरेंगे, सो शब्द बना मार-धाड़! अधिक तर्कसंगत यह है कि धाड़ शब्द 'दहाड़' से बना हो। 'द' के साथ महाप्राण 'ह' मिलकर उ

ऋणं कृत्वा घृतंं पिबेत्

चार्वाक दर्शन के नास्तिक भौतिकवाद का भी एक अपना आनंद है! यावज्जीवेत सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्  भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥  चार्वाक दर्शन दर्शन की वह प्रणाली है जो इसी जीवन में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में नहीं। इसे नास्तिक दर्शन या लोकायत दर्शन भी कहा गया है। विद्वानों ने वेदवाह्य दर्शन कहा है, नकारा नहीं। चार्वाक दर्शन की यह परंपरा उत्तराखंड में आज भी जीवित है। सिंह संक्रांति (सौर भाद्रपद की पहली तिथि) को कुमाऊँ में "घी संक्रांति" कहा जाता है और विश्वास है कि इस दिन येन-केन-प्रकारेण यदि घी न खाया जाए तो अगले जन्म में घोंघा होना निश्चित है। घोंघा बसंत (परम मूर्ख) तो बहुत मिलते होंगे आपको। घोंघा (संस्कृत में घोङ्घ:) बहुत ही धीमी चाल से चलने वाला लिजलिजा जीव जो किसी भी स्पर्श या हलचल से तुरंत सिकुड़कर अपनी पीठ पर लदे खोल में घुस जाता है। घोंघे के लिए बसंत का सौंदर्य या हलचल व्यर्थ है। कवच के अंदर घुसा न कुछ देख सकता है, न समझ सकता है, न घूम-फिर सकता है। संभवत: इसीलिए कहा गया हो घोंघा बसंत। इसी रूपक को थोड़ा दार्शनिक/मनो