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धम, धमक और धमाका

धम से धमाका बचपन में टोका जाता था - "धम-धम करके मत चलो। पैर इतना सँभलकर रखो कि पदचाप सुनाई न दे।" यह शिष्टाचार का अंग था कि पदचाप का स्वर तीव्र नहीं होना चाहिए। स्पष्ट है धम या या धम्म ध्वन्यात्मक शब्द है। कोई भारी वस्तु धम्म से नीचे गिरती है। धम से बनता है धमक । धमक कर चलना वही है जिससे हमें शिष्टाचार बरतते हुए बचने को कहा जाता था। सजधजकर चलते हुए किसी की भी चाल में धमक आ ही जाती है, क्योंकि उसकी चमक-दमक के साथ ही साथ चमक-धमक भी आकर्षक होती है। धमकना इससे मिलता-जुलता है, पहचान में शायद न आए कि इसमें भी ध्वन्यात्मक "धम्म" है। कोई अचानक आ जाता है तो वह धम की पदचाप करता हुआ ही आता होगा किंतु जब संयुक्त क्रिया ' आ धमकना ' बनती है तो यह अचानक पहुँचने के लिए होती है। धमकना से ही धमकाना होना चाहिए किंतु धमकाना न तो धमकना का सकर्मक रूप है और न प्रेरणार्थक। वस्तुतः धमकाना बना है " धमकी " से। नामधातु धमकियाना > धमकाना अर्थात् डाँटना-फटकारना, डराना। धमकी में धमक देखने भर की है, भाव में कहाँ लुभावनी धमक और कहाँ डरावनी धमकी! अपनी इच्छा के अनुसार किसी को

बावला और बौड़म

बावला संस्कृत वातुल > प्राकृत बाउल से व्युत्पन्न माना गया है।  मूलतः तो यह ऐसे व्यक्ति के लिए है जिसे (वात) वायु का प्रकोप हो, जो पागल, विक्षिप्त, सनकी हो। इसके अन्य अर्थ हैं- जिसका मानसिक विकास नहीं हुआ हो, मानसिक रूप से अपरिपक्क्व। बोलियों में इसके रूप हैं- बावळा, बावरा, बौरा। संत तुलसीदास तो ब्रह्मा जी से कहलवाते हैं: "बावरो रावरो नाह भवानी।" (हे भवानी, आपका पति तो पूरा बावला है। ऐसा दानी कि जिसके भाग्य में मैं दरिद्रता लिखता हूँ उसे यह सब कुछ दे दे डालता है। अब यह विधाता वाली खाता-बही मैं नहीं सँभाल सकता। आप मेरा त्यागपत्र स्वीकार कीजिए।) भोले-भाले, नादान, अज्ञानी को भी बावरा/बावरी कहा जाता है: "हौं ही बौरी विरह बस कै बौरो सब गाउँ। कहा जानि ये कहत हैं, ससिहि सीतकर नाउँ।। ~बिहारी  बावरी विशेषण केवल विक्षिप्त के अर्थ में ही नहीं है। बावरी होना भोलेपन की वह स्थिति है जिसमें अपनी उपस्थिति का भान नहीं होता, यह ध्यान नहीं रहता कि आसपास क्या घट रहा है। मीरा तो स्वघोषित बावरी है। बावरी अनेकार्थी भी है। अर्थ हैं जलाशय, भोली, मासूम, अबोध। लाक्षणिक अर्थ में पगली भी

धाँसू और घोंचू

धाँसू और घोंचू मुंबइया हिंदी में बढ़िया के लिए प्रचलित हैं - झकास / धाँसू / कड़क / ढिंचेक / रापचिक। इनमें " धाँसू " की अर्थ छबियाँ बहुत हैं। यह बढ़िया, शानदार, आकर्षक, तड़क-भड़क वाला, बलिष्ठ, तगड़ा गज़ब का, अनुपम आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में great/wonderful/brilliant/gorgeous/stunning/super/formidable इत्यादि के लिए विशेषकर युवा पीढ़ी द्वारा प्रयोग किया जाता है। *** " घोंचू " देशज (अज्ञात व्युत्पत्तिक) शब्द है जिसका अर्थ है निपट मूर्ख, नासमझ। घोंचा (बैल) से बना विशेषण है घोंचू। मूर्ख को लक्षणा में गधा या बैल के रूपक से संकेत किया जाता है। संस्कृत में प्रसिद्ध उक्ति है "गौर्वाहीकः"। अर्थात् वाहीक देश के लोग बैल होते हैं। 

क्वारेन्ताएँ

चार, चालीस और क्वारेंटाइन वैश्विक महामारी ने quarantine शब्द को विश्वव्यापी बना दिया है। यह जानना रोचक होगा कि मूलतः इस शब्द का अर्थ 14 दिन के अलगाव से नहीं, 40 दिन के अलगाव से था। यह शब्द प्रारंभ में इटली में उन जहाजों के संदर्भ में प्रयुक्त हुआ जिनसे किसी संक्रामक रोग के फैलने की आशंका हो। उन्हें 40 दिन तक समुद्र तट पर लंगर डाले रहना आवश्यक था। उसके बाद ही उसके माल या यात्रियों को मुख्य भूमि में आने की अनुमति होती थी। इतालवी में quaranta का अर्थ है 40 । यह भारोपीय मूल का शब्द है। [(PIE root *kwetwer- <-> संस्कृत चतुर  "four") > चत्वारिंशत् 40]। इसीलिए quarter चतुर्थांश है और दिल्ली में सरकारी आवास की एक इकाई क्वाटर कही जाती थी। © 

कांड, घोटाला से घूस तक

कांड संस्कृत शब्द है इसका अर्थ है खंड। दूब, गन्ना, बांस, नरकट आदि घास वर्ग में दो गाँठों के बीच के भाग को कांड या  पर्व (पोर)   कहा जाता है। हमारी अंगुलियों में भी कांड होते हैं। कांड की विशेषता है कि नया पौधा गाँठ से ही जनमता बढ़ता है। दूब के बारे में यजुर्वेद में कहा गया है कि वह कांड से सैकड़ों-हजारों शाखाओं में पनपती है। काण्डात्-काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः-परुषस् परि । एवा नो दूर्वे प्र तनु सहस्रेण शतेन च ... कांड उपासना मार्ग के सोपान और विषय विभाजन भी हैं- कर्मकांड, ज्ञानकांड, उपासना कांड। प्राचीन साहित्य में प्रायः रामकथा कांडों  में विभक्त है, एक कांड से दूसरे कांड की ओर बढ़ती हुई। महाभारत मैं कांड नहीं, पर्व हैं।अर्थ दोनों का एक ही है। आज जिसे हम अध्याय या खंड कहते हैं वे ही कांड या पर्व हैं। इन पर्वों और कांडों को उनके प्रधान विषय के अनुसार नाम दे दिए जाते हैं। रामकथा के कांडों में लंका कांड का संबंध आज कांड शब्द के अर्थापकर्ष के कारण से जोड़ा जा सकता है। जब कभी छोटा-मोटा संघर्ष होता है तो कह दिया जाता है लंका कांड हो रहा है अर्थात मारपीट फसाद हो रहा है। इस तरह कांड का दायरा ब

विज्ञ, अभिज्ञ और 'भिज्ञ'

विज्ञ, अभिज्ञ और 'भिज्ञ' अभिज्ञ (जानकार), अनभिज्ञ (न जानने वाला) में अ- और अन- को निषेधार्थक उपसर्ग मानकर कुछ विज्ञ (ज्ञानी) जन ज्ञानी के लिए 'भिज्ञ' शब्द का प्रयोग करते हैं। उनके लिए अविज्ञ वह है जो जानता कुछ नहीं। उनका सीधा तर्क है- जैसे अज्ञानी में से अ हटा देने पर ज्ञानी बचता है, ठीक उसी प्रकार अ, अन हटा देने से 'भिज्ञ' भी बनेगा। वस्तुतः हिंदी में 'भिज्ञ' कोई शब्द ही नहीं है। संस्कृत में शब्द है 'ज्ञ'। उससे पहले अभि- और अन्-  उपसर्ग जोड़ दिए गए हैं। 'अनभिज्ञ' में भी अन + भिज्ञ नहीं, अन् + अभिज्ञ है। √ज्ञा (जानना) धातु से जानने वाला के अर्थ में 'ज्ञ' शब्द बनता है जिसका अर्थ है ज्ञानी, जानकार। वि- उपसर्ग जोड़ने से 'विज्ञ' बनेगा जिसका अर्थ है विशेष जानकार, विशेषज्ञ।  विशेष बात यह है कि 'ज्ञ' का हिंदी में स्वतंत्र प्रयोग नहीं है। 'ज्ञ' से अनेक यौगिक शब्द बनते हैं जो संस्कृत से ज्यों-के-त्यों ले लिए गए (तत्सम) हैं; जैसे: सर्वज्ञ, अज्ञ, अल्पज्ञ, तत्वज्ञ, रसज्ञ, शास्त्रज्ञ, मर्मज्ञ, सुविज्ञ आदि। ऐसे सुविज्ञों से

यथा-तथा

शब्द-विवेक : यथा-तथा हिंदी में यथा (अव्यय) का प्रयोग स्वतंत्र रूप में कम होता है। केवल उदाहरण देने के लिए 'जैसे' के अर्थ में तत्सम प्रधान शैली में साहित्यिक प्रयोग दिखाई देता है। यथा से निर्मित संयुक्त शब्द बहुत से प्रचलित हैं; जैसे: यथायोग्य, यथासंभव, यथोचित, यथा स्थान, यथा निर्देश, यथावत आदि। तथा का यथा के विपरीतार्थक के रूप में स्वतंत्र प्रयोग केवल कुछ कहावतों में मिलता है जैसे - यथा राजा तथा प्रजा। अन्यत्र तथा का प्रयोग योजक के रूप में स्वतंत्र रूप से कम, 'और' के विकल्प के रूप में अधिक दिखाई पड़ता है; वह भी तब, जब एक वाक्य में और का प्रयोग करने के बाद कुछ जोड़ना शेष रह जाए तो यह और की पुनरुक्ति से बचाता है।  तथा से एक शब्द निर्मित होता है तथ्य, जैसा है वैसा होने का भाव, अर्थात सत्य। यथा से यथ्य नहीं बनेगा। यथार्थत्व, याथार्थ्य,  बन सकते हैं जिनका अर्थ भी तथ्य के निकट है।

भाषा में आगत-अनागत

भाषाई पवित्रता के बहाने आगत (लोन) शब्दों का विरोध और उनके स्थान पर पारंपरिक शब्दों को अपनाने के आंदोलन विश्व की अनेक भाषाओं में हुए जो अंततः स्वयं ढीले पड़ गए। अंग्रेजी को फ्रांसीसी शब्दों से मुक्त करने की बात तो18वीं सदी से ही उठने लगी थी। 1825 में थॉमस जैफरसन ने इसे मजबूती से उठाया और विलियम्स बार्न ने तो अनेक नए शब्द तक बना डाले। लेकिन आज अंग्रेजी में फ्रेंच तो छोड़िए, करीब 20% शब्द ग़ैर यूरोपीय भाषाओं के हैं जिनमें हिंदी, तमिल भी शामिल हैं। आगत शब्दों का बहिष्कार करना ऐसा करने वाली भाषा की प्रगति को ही नहीं रोकता, उसका साँस लेना भी कठिन कर देता है। भाषा का दम घुटता है तो संस्कृति भी दम तोड़ती है। हिंदी के बारे में इस पवित्रतावादी सोच की दिशा भी अजब है। मुख्य विरोध उर्दू से (दूसरे देश/धर्म की भाषा होने से, जबकि उर्दू और खड़ी बोली एक साथ जन्मी, पली, बढ़ी हैं), लेकिन उपनिवेशवाद की हिंग्लिश स्वीकार है; फ़ारसी के वे शब्द भी अशुद्ध कहे जा रहे हैं जो मुसलमान शासकों के आने से सैकड़ों साल पहले से चल रहे हैं या जो भारतीय मूल के हैं लेकिन अब थोड़ा बदल गए हैं तो विदेशी हो गए; जैसे हज़ार <> सहस्र,

नवरात्र और नवरात्रि

एक प्रश्न मिला है - नवरात्र या नवरात्रि में कौन-सा शब्द शुद्ध है? छोटा-सा उत्तर है - दोनों ठीक हैं। 'नवरात्र', नौ रातों का समूह (द्विगु समास) है जो एक विशेष अर्थ में रूढ़ हो गया है। ''शब्दकल्पद्रुम" के अनुसार (नवरात्रं - नवानां रात्रीणां समाहारः । तत् साधनत्वेनास्त्यस्येति अच्) मुख्यतः आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक नौ दिन का दुर्गा उत्सव, शारदीय नवरात्र कहे जाते हैं तथा गौणतः चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक वासन्ती नवरात्र। वर्ष में दो नवरात्र और भी माने गए हैं। चार नवरात्रियों का संकेत मात्र पर्याप्त है। वे हैं- चैत्र में प्रथम वासंती नवरात्रि, चौथे माह आषाढ़ में दूसरी, आश्विन मास में तीसरी, प्रमुख शारदीय नवरात्रि होती है। इसी प्रकार माघ मास में चौथी नवरात्रि का महोत्सव मनाने का विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। 'नवरात्रि' शब्द में किन्हीं भी नौ रातों का उल्लेख भर है, यह किसी विशेष अर्थ का द्योतक नहीं। नवरात्रियाँ नवरात्र की भी हो सकती हैं, भिन्न संदर्भ की भी। नवरात्र शब्द से अनेक आंचलिक स्वरूप विकसित हुए हैं जो इस दुर्गाउत्सव की व

मीडिया की हिंदी: भूमिका और चुनौतियाँ

समाचार पत्रों की भाषा विशुद्ध साहित्यिक नहीं, सामान्य जन की आम-फ़हम भाषा होती है, किंतु वह गली- चौराहे की आमफ़हम भाषा भी नहीं होती।  इन दोनों के बीच में ही कहीं मीडिया की भाषा की स्थिति होनी चाहिए।  मीडिया साहित्य, आलोचना और सृजनशील साहित्यकारों के संसार से अलग तरह का क्षेत्र है।  उसे अपनी अलग भाषा चाहिए किंतु इसका आशय यह नहीं है कि जो सृजनशील साहित्य नहीं है उसमें अंग्रेजी को खुली छूट मिले।  एक सीमा तक  उसमें अंग्रेजी के ऐसे आम शब्द आना स्वाभाविक है जो हमारे दैनिक व्यवहार में अपरिहार्य हो गए हैं क्योंकि देश में अंग्रेजी का वर्चस्व है।  शिक्षा में, चिकित्सा में, न्यायालयों में और संसद में भी, हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है।  जिसका बोलबाला होता है लोग उसकी नकल करते हैं।  किंतु ऐसी भी क्या नकल कि केवल क्रियापद के अतिरिक्त कथित हिंदी वाक्य में सारे शब्द अंग्रेजी के ठूँसे हुए हों।  स्वाभाविक रूप से प्रयुक्त अंग्रेजी और ठूँस-ठूँस कर डाली हुई अंग्रेजी में यही अंतर है और इस प्रवृत्ति से बचा जाना चाहिए।  मीडिया शायद यह भूल जाता है कि ऐसी हिंदी से लपेटकर परोसी जाने वाली सामग्री के प्रति पाठक के मन

लिखें सिंह, बाँचें सिंघ, सुनें सिङ्

भारत के इतिहास में सिंह उपनामधारी व्यक्तियों का बड़ा योगदान रहा है। गुरु गोबिंद सिंह जी, महाराजा रणजीत सिंह, जोरावर सिंह, सरदार भगत सिंह, ऊधम सिंह, उड़न-सिख मिल्खा सिंह और बहुत सारे सिंह भारतीय इतिहास के सितारे हैं। पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, कश्मीर, बिहार आदि के न जाने कितने सिंह सपूत ऐतिहासिक हस्ती हो चुके हैं और यह परंपरा बनी हुई है। संस्कृत में सिंह बब्बर शेर (lion)के लिए है। ज्योतिष शास्त्र और खगोल विज्ञान में सिंह (Leo) राशिचक्र की पाचवीं राशि है। इसका चिन्ह शेर है। राशिचक्र में इसका विस्तार 120 अंश से 150 अंश तक है। सूर्य सिंह राशि का स्वामी और तत्व अग्नि। सिंह (lion) की ही तरह यह बहुत शक्तिशाली माना जाता है। राशि नाम हो या उपनाम, सिंह की व्युत्पत्ति बड़ी रोचक है। यह शब्द 'हिंस्' (= मारना) के वर्णों को उलटकर बना है। "सिंहो वर्णविपर्ययात्। अन्तर्विपर्यये हिनस्तीति सिंह:।" (शब्दकल्पद्रुम) अर्थात् सिंह शब्द वर्ण विपर्यय (वर्ण उलट जाने) से बना; 'जो हिंसा करे, वह सिंह।' इस नाम के साथ एक विचित्रता और भी जुड़ी हुई है। हिंदी, नेपाली, पंजाबी, मर

जल जीवन

जल को जल क्यों कहा जाता है! जल को संस्कृत की √जल् धातु से व्युत्पन्न माना जाता है। अर्थानुसार इसके दो कारण हैं: १.√जल् आच्छादने, जलति आच्छादयति भूम्यादीनिति। जिससे पृथ्वी में सब कुछ आच्छादित (ढका हुआ) है, जो सब में व्याप्त है वह जल २. √जल् जीवने, जलति जीवयति लोकान् वा।  जो सभी प्राणियों को जीवन देता है वह भी जल। इसीलिए जल को जीवन भी कहा जाता है। हिंदी में यों तो जल और पानी का  कोशीय अर्थ एक ही है, किंतु प्रयोग में कहीं-कहीं समाज भाषा वैज्ञानिक नियमन है। गंगा का पानी गंगाजल होगा किंतु किसी गड्ढे-नाले का जल पानी कहलाएगा । पूजा अर्चना अभिषेक आदि में जल का प्रयोग होता है स्नान के लिए आप जल और पानी दोनों का प्रयोग कर सकते हैं किंतु यदि तीर्थ में स्नान कर रहे हों या किसी शुभ कार्य से पहले स्नान कर रहे हों तो प्रायः जल को वरीयता दी जाती है। पारिभाषिक शब्दावली में पानी एक प्रकार से वर्जित है, सर्वत्र जल का प्रयोग होता है- जलीकरण, जलवाष्प, निर्जल, अधोभौमिक जल आदि। यहाँ जल का स्थानापन्न पानी नहीं हो सकता। पानी शब्द संस्कृत में पानीय है। संस्कृत में पीने के अर्थ में √पा धातु है। √पा से अनीयर् प्र

कचहरी

कचहरी   کَچَہْرِی ‎ कचहरी को शब्दसागर ने देशज अथवा संस्कृत कष + गृह = कषगृह > कशघरी > कछहरी > कचहरी । संस्कृत में कष का अर्थ घिसना, परखना, कसना, जाँचना है। इसी से शब्द बना है कष-पट्टिका (कसौटी) कष-पाषाण (शुद्धता जाँचने-परखने का पत्थर)। कसौटी शब्द संस्कृत के कृत्यगृह से व्युत्पन्न भी माना गया है। कृत्य (कर्तव्य) + गृह (घर) > कच्चघरी > कचहरी। संस्कृत कृत्य-गृह का अशोक कालीन प्राकृत में "कच्चघरिका" रूप मिलता है जो अपभ्रंश से हिंदी/उर्दू तक आते-आते कचहरी बन गया। कचहरी वह स्थान है जहाँ बैठकर न्यायाधिकारी वाद-विवादों पर निर्णय लेते हैं। इसके अन्य अर्थ हैं - दरबार, राज-सभा, न्यायालय, अदालत, इजलास, मजमा आदि। कचहरी से अनेक मुहावरे बने हैं; जैसे कचहरी लगना/लगाना, ~बैठना, ~उठना, भरी~, खुली~, कोर्ट-कचहरी के फेरे। यह शब्द मुगल, मराठा, दक्षिण के अनेक राजा-रजवाड़ों के कामकाज का प्रमुख शब्द हो गया था। फिर कम्पनी और अंग्रेजी राज में कोर्ट-कचहरी के चक्कर आम हो गए तो लोकप्रियता में कचहरी को अखिल भारतीय शब्द बनना ही था। आज भारत की प्रायः सभी प्रमुख भाषाओं में कचहरी, कचेरी, कच्चेर

शब्द विवेक - संगठन, संघटन और संघ

संगठन और संघटन में प्रायः अंतर करना कठिन हो जाता है। मूल संस्कृत शब्द तो संघटन है किंतु हिंदी में संगठन इसके समानांतर चल पड़ा है और संघटन की अपेक्षा अधिक प्रचलित है। जोड़ने, रचना करने के अर्थ में √घट् धातु से बने 'घटन' के पूर्व सम् उपसर्ग जुड़ने से बनता है संघटन। संगठन इसका हिंदी में विकसित रूप है। अब चूँकि दोनों शब्दों की रचना दो भिन्न धातुओं से नहीं है, इसलिए संघटन को तत्सम तथा संगठन को तद्भव भी माना जा सकता है। इन दोनों के अर्थ क्षेत्र परस्पर मिले हुए हैं किंतु इधर पारिभाषिक शब्दावली के रूप में दोनों में स्पष्ट अंतर किया जाने लगा है। संगठन बिखरी हुई शक्तियों, लोगों या अंगों आदि को इस प्रकार मिलाकर एक करना कि उनमें नया जीवन या बल आ जाए, किसी विशिष्ट उद्धेश्य या कार्यसिद्धि के लिये बिखरे हुए अवयवों को मिलाकर एक और व्यवस्थित करना, एक में मिलाने और उपयोगी बनाने के लिये की हुई व्यवस्था संगठन (organization) है। प्रबंधन विज्ञान के अंतर्गत संगठन वह आंतरिक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत यह देखा जाता है- उत्पादन के विभिन्न उपादानों को एकत्र कर उन्हें काम पर लगाना तथा उनके बीच ऐसा सहयोग एव

नाम चर्चा : सागर माथा

एवरेस्ट, चीन और नेपाल की सीमा पर हिमालय का सर्वोच्च शिखर। नाम तत्कालीन भारत के सर्वेयर जनरल सर जॉर्ज एवरेस्ट (CB   FRS FRAS FRGS) के नाम पर रखा गया, यद्यपि आंकडों के आधार पर ऊँचाई तय की थी देहरादून के ऑफिस में बैठे राधानाथ सिकदर नाम के कर्मचारी ने। विडंबना यह रही कि अपने जीवनकाल में एवरेस्ट पर्वत को न जनरल एवरेस्ट देख पाए, न राधानाथ सिकदर। पर्वत दो देशों की सीमा पर है और दोनों देशों में इसके नाम अलग हैं। नेपाल में सगरमाथा और चीन (तिब्बत) में ཇོ་མོ་གླང་མ ( चोमो लुंगमा )। भारत में यह एवरेस्ट और सागरमाथा इन दोनों नामों से जाना जाता है, यद्यपि एक नाम और ढूँढ़ा गया है देवगिरि। कुछ नवोन्मेषी भारतीय इसे राधानाथ सिकदर का नाम देना चाहते हैं। यह प्रयास 'बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना' जैसा है क्योंकि पर्वत भारत का नहीं, चीन-नेपाल का है तो भारत नामकरण संस्कार कैसे कर सकता है! यहाँ विचार किया जाएगा कि एवरेस्ट के नेपाली प्रचलित नाम की व्युत्पत्ति क्या है और कितनी ठीक है। नेपाली भाषा में इसे सागर/सगर माथा कहा जाता है। माथा शब्द संस्कृत भाषा के मस्तक से बना है। नाम सागर माथा मानें तो अर्थ

अइयो रामा!

हम "शुद्ध हिंदी" का तर्क देते हुए अपने  यहाँ सैकड़ों-हजारों वर्षों से आम व्यवहार में आ रहे फ़ारसी, अरबी, तुर्की शब्दों को विदेशी बताकर उनका बहिष्कार करने की बात करते हैं। यह बात और है कि अंग्रेजी शब्दों को ठूँस कर हिंदी को हिंग्लिश बनाए जाने पर विशेष ध्यान नहीं देते। अंग्रेजी के विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय शब्दकोश Oxford English Dictionary (OED) प्रत्येक वर्ष चार बार अपने शब्दसागर में उन नए शब्दों को जोड़ती है जो दुनिया की किसी भाषा के हों किंतु अंग्रेजी में प्रयुक्त होने लगे हों। OED में जुड़े कुछ नए हिंदी/उर्दू शब्दों में हैं -- योग, योगासन, सूर्यनमस्कार, दीदी, आधार, डब्बा, शादी, अण्णा, दादागिरी, हड़ताल, अच्छा, चटनी, मसाला, पूरी, पक्का, यार, बदमाश, गंजा आदि। अन्य भारतीय भाषाओं से भी सैकड़ों शब्द खुले दिल से OED में अपनाए गए हैं। उनमें एक है पूरे दक्षिण भारत और श्रीलंका में सबसे लोकप्रिय द्रविड़ मूल का शब्द "अइयो!" यों तो अइयो! आश्चर्य बोधक है, पर व्यवहार में यह बहुत ही व्यापक है और आश्चर्य ही नहीं, सभी प्रकार के भावनात्मक उद्वेगों में समान रूप में कहा जाने वाला तात्कालिक

अज्ञ बने विशेषज्ञ

अज्ञों के सम्मान में विशेषज्ञ ज् और ञ के संयोग से बना हुआ संयुक्त अक्षर है ज्ञ । यह एकाक्षरी  स्वतंत्र शब्द भी है जिसका अर्थ है ज्ञानी, ज्ञानवाला, जानकार। ज्ञ का स्वतंत्र प्रयोग कम होता है और किसी शब्द के साथ प्रत्यय के रूप में ज्ञ जोड़कर इससे समस्त पद बनाए जाते हैं; जैसे शास्त्रज्ञ, सर्वज्ञ, निमित्तज्ञ, विधिज्ञ, कार्यज्ञ, दैवज्ञ, शास्त्रज्ञ, सर्वज्ञ, अज्ञ, विशेषज्ञ । अमरकोश के अनुसार --   विद्वान्विपश्चिद्दोषज्ञः सन्सुधीः कोविदो बुधः।  धीरो मनीषी ज्ञः प्राज्ञः संख्यावान्पण्डितः कविः॥ #   #    आजकल टीवी चैनलों, विद्वानों की गोष्ठियों में कभी-कभी ऐसे विशेषज्ञ आ जाते हैं जिन्हें "विशेष अज्ञ" कहने का मन करता है किंतु व्याकरण इस स्थापना को स्वीकार नहीं करेगा। संस्कृत के संधि नियमों के अनुसार यहाँ दीर्घ स्वर संधि होगी और विशेष +अज्ञ मिलकर पद बनेगा 'विशेषाज्ञ'। अनेक बार गोष्ठियों में मैंने विद्वानों के समक्ष यह प्रश्न उठाया जिसे हँसी- मजाक में टाल दिया गया और यही हो भी सकता था। schwa लोप के तर्क एक बार ट्विटर में संस्कृत के एक प्रकांड विद्वान मित्र रामानुज देवनाथन (असमय ही

ही संधि : हिंदी की अपनी संधि

संधि से तात्पर्य किन्हीं दो निकटस्थ ध्वनियों के मेल से उनमें आने वाला स्वनिमिक परिवर्तन है। हिंदी में संधि के नाम पर वस्तुतः संस्कृत की ही संधियाँ पढ़ाई जा रही हैं। स्वर, व्यंजन, विसर्ग के नाम से जिन संधियों की चर्चा हिंदी में की जाती है उनके सारे के सारे उदाहरण संस्कृत से हिंदी में आए तत्सम शब्दों के उदाहरण हैं। संधि के नाम पर सिखाई जाने वाली संधियाँ हिंदी की नहीं, संस्कृत की हैं और केवल कुछ तत्सम शब्दों में होती हैं, सभी में नहीं। हिंदी में दंडाधिकारी होता है, वितरणाधिकारी नहीं। महोदय संभव है, पदोदय नहीं। सदैव बनता है, सदैक नहीं बनता। असल में हिंदी की प्रवृत्ति वियोगात्मक है, संधि करने की नहीं। कुछ स्थितियों में हिंदी की अपनी संधियाँ विकसित हुई हैं किंतु उन पर ध्यान नहीं दिया गया और वैयाकरण उनकी अनदेखी करते हैं।  उदाहरण के लिए कुछ विशेष स्थितियों में निपात "ही" के संपर्क में आने पर हिंदी के कुछ शब्दों में रूपस्वनिमिक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। इसे "ही-संधि" कहा जा सकता है जो हिंदी की अपनी संधि है क्योंकि अब  इसके अपने नियम बन गए हैं। इस "ही-संधि" में पास-प

समीप : जल से निकट तक

" समीप " शब्द का संस्कृत में व्युत्पत्तिपरक अर्थ है- जहाँ जल अच्छी प्रकार से गति करे;  (सङ्गता आपोऽत्र, सम्+आप्) परन्तु आज हिंदी कोशो में और हिंदी के व्यवहार में समीप जल का नहीं, सर्वत्र निकटता का द्योतक है। सहज प्रश्न उठता है कि "समीप" शब्द जल को छोड़कर  निकट के अर्थ में क्यों चल पड़ा? कोई शब्द भाषा में किसी विशेष अर्थ में रूढ़, प्रधान हो जाता है। रूढ़ हो जाने पर उसकी व्युत्पत्ति या व्याकरणिक दृष्टि गौण हो जाती है और लोक प्रमाण प्रमुख। जल के साथ समीप का संबंध भी लोक व्यवहार से ही जुड़ा प्रतीत होता है। "अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः । सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः ॥" मनुः ।  २ ।  १०४ । नित्य नैमित्तिक कर्म करने, संध्या-वंदन, गायत्री जप आदि के लिए नदी या जल के निकट जाने की लोक परंपरा थी। कालांतर में संध्यादि कर्म के लिए नदी या सरोवर तक जाना आवश्यक नहीं रहा; अर्थात् 'समीप' आवश्यक नहीं रहा। समीप के साथ 'निकटता' का अर्थ जुड़ गया। इसे अर्थ विस्तार भी कहा जाता है। हजारों वर्षों से लोक प्रयोग में यह समीप निकटता के लिए रूढ़ हो गया।

बोलबाला "इसलिए" का

" इसलिए " हिंदी का सर्वाधिक बारंबारता वाला क्रियाविशेषण अव्यय है जो प्रायः दो स्वतंत्र उपवाक्यों को जोड़ता है। यह यद्यपि स्वतंत्र शब्द है किंतु गठन की दृष्टि से सर्वनाम यह और √लेना के कृदंत तथा परसर्ग का अव्यय रूप है जो इस प्रकार दिखाया जा सकता है -- यह > इस (तिर्यक) + लिए । इसी के समकक्ष किसलिए, जिसलिए (कम प्रयुक्त) रचनाएँ क्रमशः कौन और जो सर्वनामों से निर्मित हैं। संस्कृत में "अस्य कृते" इसलिए के अर्थ में है किंतु इसलिए की व्युत्पत्ति "अस्य कृते" से होना संदिग्ध लगती है। इसके समानान्तर हिंदी की  बोलियों में 'लिए' के लागि, लगि, लगे, लाग रूप मिलते हैं जो √लग से बने हैं। "सबु परिवारु मेरी याहि लागि, राजा जू, हौं दीन बित्तहीन, कैसें दूसरी गढ़ाइहौं॥" ~तुलसी जहाँ तक प्रकार्य का संबंध है, हिंदी में "इसलिए" दो स्वतंत्र उपवाक्यों को जोड़ता है और उनमें कार्य - कारण संबंध बताता है। जैसे: वर्षा हो रही थी, इसलिए मैं नहीं आ सका । आपने बुलाया, इसलिए आया हूँ। उक्त वाक्यों के प्रारंभ में कुछ लोग 'क्योंकि' अथवा 'चूँकि

कौनो ठगवा नगरिया लूटल हो ।—कबीर

हिंदी उर्दू में एक शब्द है ठग,  जो अब अंग्रेजी में भी अपना स्थान बना चुका है। ठग शब्द को संस्कृत की √स्थग् धातु से निष्पन्न माना जाता है। √स्थग् से विशेषण बनता है स्थग, जिसका अर्थ है जालसाज, धूर्त, बेईमान, छली निर्लज्ज Fraudulent, dishonest, a rogue, a cheat। ठग शब्द सुनते ही लोगों के दिमाग़ में चालाक और मक्कार आदमी की तस्वीर उभरती है जो झाँसा देकर कुछ कीमती सामान ठग लेता है। शब्द रत्नावली के अनुसार “धूर्तो स्थगश्च निर्लज्जः पटुः पाटविकोऽपि च ॥ ” व्युत्पत्ति की दृष्टि से स्थगन, स्थगित शब्द भी इसी 'ठग, के भाई-बंधु हैं। ठगी, धोखाधड़ी, लूटपाट, हत्या जैसे काम करना ही ठगों का पारंपरिक व्यवसाय रहा है। इनकी विशेष कार्य स्थली गंगा-यमुना का दोआबा माना जाता था, किन्तु अन्यत्र भी इनकी धूम रही है। अंग्रेजों के ज़माने में भी इनको जरायमपेशा (अपराध वृत्ति के) माना जाता था। भारत में 19-वीं सदी में जिन ठगों से अंग्रेज़ों का पाला पड़ा था, वे कोई मामूली लोग नहीं थे। ठगों के बारे में सबसे दिलचस्प और प्रामाणिक जानकारी 1839 में छपी  पुलिस सुपरिटेंडेंट फ़िलिप मीडो टेलर की पुस्तक 'कनफ़ेशंस ऑफ़ ए ठग

"जी" अव्यय: व्युत्पत्ति और प्रयोग

जी :   جی ‎ व्युत्पत्ति: संस्कृत "जीव" (√जीव् + क) ( जीवति वाला) <> जिव्व, जिव (प्राकृत) > जी (हिंदी) > जीउ, जियू, जू (राजस्थानी) > ज्यू (कुमाउँनी)। असमी জীউ  । १. आदरसूचक अव्यय लिंग, वचन निरपेक्ष ~ नाम, उपनाम के साथ  स्वतंत्र -- नरेश जी, मोदी जी,【माता जी, पिता जी (संबोधन में)】, लाला जी, मुंशी जी, नेता जी ~ कुछ रिश्तों के साथ (संदर्भ देते हुए) जोड़कर -- मेरे पिताजी, जया की माताजी ~ कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के साथ जुड़कर (विकल्प से) -- गांधीजी, रामजी ~किसी के नाम का अंग उसी के साथ जुड़कर -- किशनजी दुबे, रामजी वर्मा २. स्वीकृति, अस्वीकृति, निषेध, प्रश्न सूचक अव्यय ~ जी, जी!, हाँ जी, नहीं जी, जी नहीं ~ जी? क्यों जी? जी, क्या कहा?

नुक़्ते की बात

'नुक़्ता' अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ 'बिंदु' होता है, कुछ आगत शब्दों में अक्षर के विशिष्ट उच्चारण को दिखाने के लिए लगाया जाने वाला संकेत। नुक़्ता लम्बे समय से हिंदी विद्वानों के बीच विमर्श का विषय रहा है। किशोरीदास वाजपेयी जैसे व्याकरण के विद्वान हिंदी लेखन में नुक़्ता लगाने के पक्ष में नहीं हैं। उनका कहना है कि ये सब शब्द अब हिंदी के अपने हो गए हैं और हिंदी भाषी इन शब्दों का उच्चारण ऐसे ही करते हैं जैसे उनमें नुक़्ता नहीं लगा हो। बहुत कम लोगों को उर्दू के नुक़्ते वाले सही उच्चारण का ज्ञान है। केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा जारी मानक हिन्दी वर्तनी के अनुसार भी उर्दू से आए अरबी-फ़ारसी मूलक वे शब्द जो हिंदी के अंग बन चुके हैं और जिनकी विदेशी ध्वनियों का हिंदी ध्वनियों में रूपांतरण हो चुका है, नुक्ता रहित हिंदी रूप में ही स्वीकार किए जा सकते हैं। जैसे :– कलम, किला, दाग आदि ( क़लम, क़िला, दाग़ नहीं )। पर जहाँ उनका शुद्‍ध विदेशी रूप में प्रयोग अभीष्ट हो अथवा उच्चारणगत भेद बताना आवश्‍यक हो (जैसे उर्दू कविता को मूल रूप में उद्धृत करते समय) , वहाँ उनके हिंदी में प्रचलित र

ठुल्ला चर्चा

एक राजनीति-कर्मी ने पुलिस-कर्मी को ठुल्ला कह दिया तो बड़ा बवाल मचा था। माननीय न्यायालय को भी कहना पड़ा था कि ठुल्ला शब्द किसी शब्दकोश में नहीं है। बाद में नेता जी ने इसके लिए माफ़ी माँगी थी और कहा था कि ये शब्द उन्होंने उन पुलिस कर्मियों के लिए इस्तेमाल किया था जो  ग़रीबों को परेशान करते हैं। शब्दकोश में चाहे अभी न हो, व्यवहार में यह आज से नहीं सैकड़ों वर्षों से, शायद हज़ारों वर्षों से अधिक पुराना है। ठुल्ला शब्द संस्कृत स्थूल, स्थूलक, स्थूर (मोटा, विशाल) से है। पालि और शौरसेनी प्राकृत में भी ठुल्ला, ठुल्लो इसी अर्थ में दोनों शब्द विद्यमान हैं जो अपभ्रंश में ठलिअ हो गया है। सिंधी, पहाड़ी, कुमाउँनी, गढ़वाली, नेपाली आदि अनेक भारतीय भाषाओं में ठुल्लो, ठुलो, ठुला के रूप में मौजूद है। पंजाबी में यह टुल्ला है। उपमहाद्वीप से बाहर रोमानी भाषा में ठुलो, ठुली, ठुले तीनों मिलते हैं। पुरा-भारत-ईरानी Proto-Indo-Aryan के कल्पित रूप :  *stʰuHrás से संस्कृत में स्थूर, स्थूल; प्राचीन दरद, खोवारी में स्थूर, ठुल, जर्मन में स्तूर stur हठी, मूर्ख (stubborn) के लिए है। भारत में आमतौर पर पुलिस के तोंदिल, मो

आना क्रिया की कुछ अर्थ छटाएँ

 आना क्रिया के कारनामे  हिंदी में "आना" क्रिया के प्रयोग अनेक अर्थ छटाओं में प्राप्त होते हैं। यहाँ हम उनमें से कुछ छटाओं के कुछ आयामों की चर्चा करेंगे । आना गत्यर्थक अकर्मक क्रिया है जिससे वक्ता या उल्लिखित संदर्भित व्यक्ति के प्रति कर्ता की गति का बोध होता है। चलने के स्थान का उल्लेख 'से' प्रत्यय से तथा उद्दिष्ट स्थान, आने, पहुँचने के स्थान का बोध प्रायः 'तक' से हो सकता है या इसके लिए कोई कारक प्रत्यय नहीं भी हो सकता। ~जीजा जी घर आए। ~नेताजी दिल्ली से आगरा आए । ~मैं कानपुर से लखनऊ तक आपके साथ आ रहा हूँ। एक विचित्र स्थिति तब आती है जब गतिशील कर्ता उद्दिष्ट स्थान के साथ आना क्रिया लगाता है जो स्थिर है और क्रिया का वास्तविक कर्ता भी नहीं है। तब मन के अर्थ बिंब के अनुसार अर्थ ग्रहण करते हैं। जैसे: ~स्टेशन आया, मैं उतर गया (स्टेशन नहीं, गाड़ी स्टेशन पर आई) ~अब आगरा आएगा (अब आगरा पहुँचेंगे) किसी कौशल या विद्या की जानकारी होने के लिए भी आना किया प्रयुक्त होती है। ऐसी स्थिति में कर्ता के साथ 'को' विभक्ति लगती है। क्रिया प्रायः अपूर्ण पक्ष में होती है और इ

इनने-उनने

इनने-उनने उन्होंने के स्थान पर 'उनने' और इन्होंने के स्थान पर 'इनने' का प्रयोग विशेषकर कुछ पत्रकारों में कभी-कभी दिखाई देता है। यह अटपटा इसलिए लगता है कि हिंदी में यह मानक नहीं है और लोक में भी अधिक प्रयोग नहीं मिलता; पर यह अशुद्ध है नहीं। हिंदी के दो दिग्गज हस्ताक्षर मुझे याद आते हैं जो 'इनने', 'उनने' का प्रयोग किया करते थे। सुप्रसिद्ध हिंदी पत्रकार प्रभाष जोशी और लेखक प्रभाकर माचवे।दोनों ही मालवा से थे। किसी गोष्ठी में एक बार मैंने इनने/उनने प्रयोग के बारे में  प्रभाष जोशी जी से पूछा तो कुछ टालते हुए अंदाज़ में उन्होंने कहा, "इसे हिंदी को मालवा का योगदान समझिए।" सच यह है कि केवल मालवी में ही नहीं, कौरवी, ब्रज, बुंदेलखंडी आदि कुछ बोलियों में "इनने/उनने" रूप मिलता है जो अटपटा ही सही, किंतु तर्कसंगत है और इसे व्याकरण की दृष्टि से एक ही साँस में अशुद्ध भी नहीं कहा जा सकता। एक दृष्टि से इन्हें अधिक शुद्ध कहा जा सकता है! सर्वनामों में कर्ता कारक में '-ने' जोड़ने से कर्ता का रूप नहीं बदल जाता। मैं+ने = मैंने, तुम+ने = तुमने, हम+

खुर्द, कलाँ, नांगल, डीह, माजरा

उत्तर भारत में स्थान नामों के साथ कलाँ, खुर्द, खेड़ा, नांगल, नंगली, डीह, माजरा जैसे कुछ शब्द प्रत्यय के समान जुड़े हुए मिलते हैं। इनमें से कुछ तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान तक में भी प्रयुक्त हो रहे हैं जो पूरे उपमहाद्वीप क्षेत्र के एक ही सांस्कृतिक, भाषिक इकाई होने के प्रमाण भी हैं। विशेष रूप से दिल्ली, पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश में और सामान्यतः राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार में ये पुरानी ग्रामीण बस्तियों के नामों का एक भाग हैं ।आज इनकी व्युत्पत्ति के बारे में भी कुछ बातें यहाँ की जा सकती हैं। कलाँ : ईरानी/फ़ारसी मूल का शब्द है जिसका अर्थ है, 'बड़ा'। प्राचीन मध्य ईरान की विलुप्त पार्थिनियाई में इसके प्रमाण मिले हैं। कलां वाले नाम अफगानिस्तान, पाकिस्तान में भी मिलते हैं। स्थान नामों के अलावा विशेषण के रूप में इसके प्रयोग इस प्रकार भी मिलते हैं- "मस्जिद कलां" (बड़ी मस्जिद) "ख्वाज़ा कलां" (बड़े ख़्वाज़ा)। पंजाब में कहीं-कहीं यह कलां से काला हो गया है, जैसे एक स्थान का नाम है "काला बकरा"। ख़ुर्द : फ़ारसी से है, कुछ लोग संस्कृत "

बहू, पत्नी और स्त्री

बहू, पत्नी और स्त्री  वधू (√वह्+ऊधुक्) संस्कृत शब्द को पुरा-भारोपीय मूल का माना जाता है जो पालि में वधू, तेलुगु (वधुवु), कन्नड़ा (वधू) है। महाराष्ट्री, शौरसेनी प्राकृतों में वहू और हिंदी, उर्दू में बहू बन गया।  वधू के हिंदी में अर्थ हैं  नव विवाहिता स्त्री, दुलहन, पत्नी, भार्या, पुत्र की बहू, पतोहू।  ऋग्वेद में वधू शब्द का प्रयोग मिलता है। सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वा याथास्तं वि परेतन॥ (ऋ . १०.८५.३३ ) "यह वधू सुमंगली है। इसे सब देखें और इसे अखंड सौभाग्यका आशीर्वाद देकर ही अपने-अपने घर लौटें।" यह मंत्र पारस्कर गृह्यसूत्रों में विवाह कर्मकांड के साथ उल्लिखित है। आजकल कुछ लोग विवाह के निमंत्रण पत्रों में इसे उद्धृत किया करते हैं। कुछ लोग सत्संगी शैली में वधू/बहू को यों समझाते हैं: 1. वहन्ति इति वध्व:- जहाँ-जहाँ पति जाए  उसको वहन करे। 2. वध्नन्ति इति वध्व: - जो पति को भुज पाश में बाँध ले। ये दोनों पहली ही दृष्टि में मुक्त व्याख्याएँ लगती हैं। हरियाणवी तथा कुछ अन्य बोलियों में स्थान भेद से बहू का उच्चारण "बऊ" भी किया जाता है। कहीं बौ भी

लोक भाषाओं में सुरक्षित वैज्ञानिक संकल्पनाएँ

डड मेरु , पित्तीण और पिताना लोक में अनेक शब्द ऐसे मिलेंगे जिनकी व्युत्पत्ति मालूम हो जाने पर आश्चर्य होता है कि वैज्ञानिक समझी जाने वाली संकल्पना को लोकभाषाओं में किस प्रकार सही अभिव्यक्ति मिली है और उसे सहेजकर रखा गया है। हरियाणवी में एक शब्द है - डडमेरु ḍaḍamerū – चक्कर, उठते ही सिर घूमने से किसी व्यक्ति के गिर पड़ने की क्रिया। चक्कर खाना। (मेरु नाम से पुराणों में एक पर्वत का नाम भी है।) चक्कर आना मस्तिष्क के भाग अनुमस्तिष्क का सन्तुलन न रहना है। इसका सीधा सम्बन्ध मेरुदण्ड में से गुजरने वाली मेरुरज्जु से है। अतः डोलता हो मेरु जिसमें, ऐसी स्थिति डुलमेरु है। इसके अन्य हरियाणवी रूप हैं - डडमेरा ḍaḍamerā, डुडमेरा ḍuḍamerā, डुडमेळा ḍuḍamel̤ā।  अत: डडमेरा/डुडमेरु/डुलमेळा < √डुल+मेरू (सं० )| √डुल-उत्क्षेपे (सं०) (सौजन्य : ~अमित मुद्गल) डुळमेरु की ही भाँति कुमाउँनी में एक नाम धातु है "पित्तीण" (गढवाळी में "पितेंण")। इसका संबंध पित्त रस (bile) से है। अग्न्याशय से पित्त का स्राव भोजन के निश्चित समय पर नियमित रूप से स्वतः होता है। उस समय नाश्ता, भोजन न मिलने पर स्वभाव में

"दंगा परिवार" के शब्द और मुहावरे

दंगा, बलवा, riot एक प्रकार का सामाजिक विकार है जिसमें सामान्यतः एक हिंसक समूह किसी मुद्दे को लेकर प्रशासन, निजी या सार्वजनिक संपत्ति या लोगों के खिलाफ अशांति पैदा कर देता है। यह विधि विरुद्ध जमाव और शांतिभंग का ही एक गंभीर रूप होता है जो दंगा नियंत्रण क़ानूनों के अंतर्गत दंडनीय अपराध है। दंगों में आम तौर पर उग्रता, बर्बरता, तर्कहीनता, विनाशकारिता देखने को मिलती है। हिंदी, उर्दू में प्रचलित "दंगा परिवार" के कुछ शब्दों, मुहावरों पर चर्चा की जाए। दंगाई < दंगा dangā ( जो फ़ारसी के दंगल से व्युत्पन्न है) बलवाई < बलवा balvā ( फ़ारसी मूल) फ़सादी < फ़साद fasād (अरबी) उपद्रवी < उपद्रव (संस्कृत) मवाली/वबाली < बवाल हत्यारा < हत्या उत्पाती < उत्पात उग्र/उग्रता पत्थरबाज़ी नारेबाज़ी हिंसा आगजनी, अग्निकांड मारपीट अशांति नृशंस, जघन्य, जमावड़ा सिरफिरा इस परिवार के अन्य सदस्य हैं : झगड़ा ,  बखेड़ा ,  विरोध ,  खटपट ,  रा ड़,  तकरार ,  कलह ,  मनमुटाव ,  टकराव ,  वाद-विवाद , दंगाई, बलवाई, फ़सादी, उपद्रवी मुहावरे जो दंगा परिवार में सम्मिलित हैं: - टक्कर लेना - द

स्रोत-श्रोत्र-श्रौत-स्तोत्र

स्रोत-श्रोत्र-श्रौत और स्तोत्र अवचेतन मन में कहीं संस्कृत के कुछ शब्दों के सादृश्य प्रभाव को अशुद्ध रूप में ग्रहण कर लेने से हिंदी में कुछ शब्दों की वर्तनी अशुद्ध लिखी जा रही है। 'स्रोत' ऐसा ही एक उदाहरण है। इसमें 'स्र' के स्थान पर 'स्त्र' का प्रयोग देखा जाता है - 'स्त्रोत'! स्रोत संस्कृत के 'स्रोतस्' से विकसित हुआ है किंतु हिंदी में आते-आते इसके अर्थ में विस्तार मिलता है। मूलतः स्रोत झरना, नदी, बहाव का वाचक है। अमरकोश के अनुसार "स्वतोऽम्बुसरणम् ।"  वेगेन जलवहनं स्रोतः ।  स्वतः स्वयमम्बुनः सरणं गमनं स्रोतः।  अब हम किसी वस्तु या तत्व के उद्गम या उत्पत्ति स्थान को या उस स्थान को भी जहाँ से कोई पदार्थ प्राप्त होता है,  स्रोत कहते हैं। "भागीरथी (स्रोत) का उद्गम गौमुख है" न कहकर हम कहते हैं- भागीरथी का स्रोत गौमुख है। अथवा, भागीरथी का उद्गम गौमुख है। स्रोत की ही भाँति सहस्र (हज़ार) को भी 'सहस्त्र' लिखा जा रहा है। कारण संभवतः संस्कृत के कुछ शब्दों के बिंबों को भ्रमात्मक स्थिति में ग्रहण किया गया है। हिंदी में तत्सम शब्द अस्त्

सृजन और सर्जन

शब्द विवेक:  सृजन और सर्जन यदि प्रत्येक हिंदी शब्द के लिए संस्कृत की ओर मुड़ना आवश्यक हो तो सृजन चाहे तत्सम प्रतीत होता हो, है नहीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि भ्रामक व्युत्पत्ति का उदाहरण है! संस्कृत में √सृज् से सर्जन बनता है, सृजन नहीं। शतृ प्रत्यय जोड़ने पर कृदंत अव्यय 'सृजन्' बनता है, संज्ञा 'सृजन' नहीं। सर्जन (सृष्टि), विसर्जन ( मुक्ति, त्याग, छोड़ना), उत्सर्जन  (अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया)-- आदि शब्द इसी "शुद्ध" संस्कृत शब्द सर्जन से व्युत्पन्न हुए हैं। हिंदी में सृजन भी सर्जन के समानांतर ही प्रयुक्त होता आ रहा है, इसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) सर्जन से अधिक है और इसे अशुद्ध नहीं मान सकते। निस्संदेह इसे पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु यह प्रयोग से सिद्ध और स्वीकृत है। हिंदी में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के बंधनों से मुक्त हैं और यह स्वाभाविक है। भाषा का प्रवाह अग्रगामी होता है, उसे पीछे की ओर मोड़ना संभव नहीं। सृजन से हिंदी में अनेक शब्द व्युत्पन्न हुए हैं। सृजनात्मक, सृजनात्मकता, सृजनशील, सृजनकर्म, सृजनकारी आदि आदि।

सृजन और सर्जन

शब्द विवेक:  सृजन और सर्जन यदि प्रत्येक हिंदी शब्द के लिए संस्कृत की ओर मुड़ना आवश्यक हो तो सृजन चाहे तत्सम प्रतीत होता हो, है नहीं। इस प्रकार कह सकते हैं कि सृजन भ्रामक व्युत्पत्ति का उदाहरण है! संस्कृत में √सृज् से सर्जन बनता है, सृजन नहीं। शतृ प्रत्यय जोड़ने पर कृदंत अव्यय 'सृजन्' बनता है, संज्ञा 'सृजन' नहीं। सर्जन (सृष्टि), विसर्जन ( मुक्ति, त्याग, छोड़ना), उत्सर्जन  (अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने की क्रिया)-- आदि शब्द इसी "शुद्ध" संस्कृत शब्द सर्जन से व्युत्पन्न हुए हैं। हिंदी में सृजन भी सर्जन के समानांतर ही प्रयुक्त होता आ रहा है, इसकी आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) सर्जन से अधिक है और इसे अशुद्ध नहीं मान सकते। निस्संदेह इसे पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध नहीं किया जा सकता किंतु यह प्रयोग से सिद्ध और स्वीकृत है। हिंदी में ऐसे अनेक शब्द हैं जो पाणिनि के बंधनों से मुक्त हैं और यह स्वाभाविक है। भाषा का प्रवाह अग्रगामी होता है, उसे पीछे की ओर मोड़ना संभव नहीं। सृजन से हिंदी में अनेक शब्द व्युत्पन्न हुए हैं। सृजनात्मक, सृजनात्मकता, सृजनशील, सृजनकर्म, सृजनकारी आदि

"जी" अव्यय: व्युत्पत्ति और प्रयोग

जी :  جی व्युत्पत्ति :  संस्कृत "जीव" (√जीव् + क) ( जीवति वाला) <> जिव्व, जिव (प्राकृत) > जी (हिंदी) > जीउ, जियू, जू (राजस्थानी) > ज्यू (कुमाउँनी)। असमी জীউ  । प्रयोग की कुछ दिशाएँ १. आदरसूचक अव्यय (लिंग निरपेक्ष) ~ ~ नाम, उपनाम, पद के साथ  स्वतंत्र -- राम जी, सीता जी, नरेश जी,【माता जी, पिता जी (संबोधन में)】, लाला जी, मुंशी जी, नेता जी। ~ कुछ रिश्तों के साथ (संदर्भ देते हुए) जोड़कर -- मेरे पिताजी, जया की माताजी ~ कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के साथ जुड़कर (विकल्प से) -- गांधीजी, रामजी ( इसे भी देखें : http://vagarth.blogspot.com/2017/08/blog-post_24.html?m=1 )

राजनीतिक और राजनैतिक

शब्द-विवेक : राजनीतिक या राजनैतिक वस्तुतः राजनीति के शब्दकोशीय अर्थ हैं राज्य, राजा या प्रशासन से संबंधित नीति। अब चूँकि आज राजा जैसी कोई संकल्पना नहीं रही, इसलिए इसका सीधा अर्थ हुआ राज्य प्रशासन से संबंधित नीति, नियम व्यवस्था या चलन। आज बदलते समय में राजनीति शब्द में अर्थापकर्ष भी देखा जा सकता है। जैसे: 1. मुझसे राजनीति मत खेलो। 2. खिलाड़ियों के चयन में राजनीति साफ दिखाई पड़ती है। 3. राजनीति में कोई किसी का नहीं होता। 4. राजनीति में सीधे-सच्चे आदमी का क्या काम। उपर्युक्त प्रकार के वाक्यों में राजनीति छल, कपट, चालाकी, धूर्तता, धोखाधड़ी के निकट बैठती है और नैतिकता से उसका दूर का संबंध भी नहीं दिखाई पड़ता। जब आप कहते हैं कि आप राजनीति से दूर रहना चाहते हैं तो आपका आशय यही होता है कि आप ऐसे किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहते जो आपके लिए आगे चलकर कटु अनुभवों का आधार बने। इस प्रकार की अनेक अर्थ-छवियां शब्दकोशीय राजनीति में नहीं हैं, व्यावहारिक राजनीति में स्पष्ट हैं। व्याकरण के अनुसार शब्द रचना की दृष्टि से देखें। नीति के साथ विशेषण बनाने वाले -इक (सं ठक्) प्रत्यय पहले जोड़ लें तो शब्द बनेगा नै

अथ गिलास चर्चा

गिलास : आम उपयोग का गिलास शब्द अंग्रेजी के ग्लास से विकसित हुआ है, उसका तद्भव। अंग्रेज़ी में ' ग्लास ' का मूल अर्थ तो अल्प पारदर्शी, भंगुर पदार्थ काँच है किंतु यह अन्य अर्थों में भी प्रचलित है जैसे: चश्मा, शीशा (दर्पण), काँच के बने बर्तन आदि अनेक अर्थ हैं। काँच के बने गिलास (टम्बलर) के लिए भी अंग्रेजी में ग्लास प्रयुक्त होता है। लेकिन हिन्दी में इसका अर्थविस्तार हो गया - गिलास केवल काँच से बने जलपात्र को ही नहीं कहते ; काँसा , चाँदी , पीतल, काँच, स्टेनलेस स्टील आदि विविध धातुओं, मिश्र धातुओं से बने जलपात्रों के लिए भी गिलास ही प्रयुक्त होने लगा।   लोक में परंपरागत रूप से गिलास के पूर्व लोटा, कुल्हड़, कटोरा/कटोरी ही पानी पीने के काम आते होंगे। लोटे का ही एक भेद गड़ुवा भी मिलता है, प्रायः कुछ अँचलों में। इसमें लोटे से एक टोंटी सी जुड़ी होती है और पूजा के सहायक पात्रों में गणना होती है। इस्लाम में एक धार्मिक अनुष्ठान 'वुज़ू' के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। इसलिए इसे वुज़ू का लोटा भी कहते हैं।  छोटा गड़ुवा शिशुओं को दूध पिलाने के काम भी आता था। यहाँ यह उल्लेख अप्रासंगिक नही

इष्ट-मित्र, सूर्य और मैत्री

शब्द विवेक: इष्ट-मित्र इष्ट-मित्र की शब्द रचना  बड़ी रोचक है। द्वंद्व समास मानें तो यह होगा इष्ट और मित्र। विशेषण मानने पर होगा इष्ट हैं जो मित्र। अब प्रश्न यही है कि इष्ट क्या है? भ्वादि गण की √इष् धातु से बनता है इष्ट अर्थात् चाहा हुआ, प्रिय, पूज्य, अनुकूल, आदरणीय, सम्मानित। अब रहा मित्र। मित्र एक वैदिक देवता का नाम है। सूर्य को भी मित्र कहा जाता है और अनेक ऋचाओं में यह शब्द प्रयुक्त होता है।आज हिंदी में और अन्य आर्यभाषाओं में मित्र विद्यमान है। (मित्र को संस्कृत में नपुंसक लिंग कहा गया है!) वेद सुझाते हैं कि हम सबको परस्पर "मित्र की दृष्टि" से देखना चाहिए। मित्र (सूर्य) सबको समान दृष्टि से देखता है। मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ (यजुर्वेद ३६/१८) मित्र के बारे में भर्तृहरि कहते हैं: "तन्मित्रम् आपदि सुखे च समक्रियम्।" यत् (मित्र वह है जो आपदा और सुख के समय हमारे साथ होता है) और ऐसे मित्र सौभाग्य से प्राप्त होते हैं। वस्तुतः मित्रता या दोस्ती   दो या अधिक व्यक्तियो

दूध दुहने वाली दुहिता !

दूध और दुहिता Daughter महर्षि दयानन्द ने यास्क के निरुक्त को आधार मान कर दुहिता शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है: "  दूरे हिता इति दुहिता अर्थात् दूर देश (पतिगृह) में ही जिसका हित सम्भव है! इस व्युत्पत्ति का कोई भाषिक आधार नहीं है। यह आनुमानिक व्युत्पत्ति है और इसके मूल में तत्कालीन समाज की पुत्रियों के प्रति भावना ध्वनित होती है । एक अन्य व्युत्पत्ति प्राप्त होती है: या दोग्धि, विवाहादिकाले धनादिकमाकृष्य गृह्णातीति । आर्षकाले कन्यासु एव गोदोहनभारस्थितेस्तथात्वम् । दुह +  तृच् - दुहितृ। तृच् उणादि प्रत्ययः। अर्थात् जो पिता के धन आदि को दुहकर ले जाती है। यह भी आनुमानिक है और उस युग परंपरा की सूचक है जब कृषक, आभीर आर्य गोपालक थे, गोधन संपन्नता का द्योतक था और लड़कियाँ गोदोहन करती थीं। अकारण नहीं है कि वैदिक संस्कृत में दुहितृ शब्द का अर्थ दुहनेवाली है। प्रतीकार्थ बन गया जो पिता के धन का दोहन करके ले जाती है वह दुहिता। उपर्युक्त व्युत्पत्तियों के अतिरिक्त दुहिता शब्द की विकास यात्रा के सूत्रों को ढूँढ़ा जाए तो वे सम्पूर्ण भारोपीय क्षेत्र में बिखरे हुए मिलते हैं हैं और सहज

शब्द-विवेक -1: निम्न और निम्नलिखित

निम्न 【नि+√म्ना +क】स्वतंत्र विशेषण है; अर्थ है नीच, नीचे का, ढलान वाला, घटिया। शब्द के पहले जोड़ा जा सकता है - निम्नलिखित, निम्नवर्ग, निम्नकोटि, निम्नगा (नदी), निम्न विचार आदि। निम्नलिखित 【निम्न + √लिख् +क्त】अर्थात् नीचे लिखा हुआ ( विशेषण) हिंदी में निम्नलिखित को छोटा करके केवल निम्न से काम चलाने लगे हैं, इससे अर्थ बदल जाता है। जैसे: • निम्नलिखित सदस्य उपस्थित थे। (=वे सदस्य उपस्थित थे जिनके नाम नीचे लिखे हैं।) • निम्न सदस्य उपस्थित थे। (=घटिया सदस्य उपस्थित थे।)

व्रत, उपवास और अनशन

व्रत ••• भक्ति, साधना या किसी धार्मिक अनुष्ठान और नियम पालन के लिए दृढ़ संकल्प पूर्वक किया गया कोई विधान व्रत कहा जाता है। सत्यव्रत, पतिव्रत, ब्रह्मचर्य व्रत, एकादशी, पूर्णिमा, रामनवमी आदि ऐसे ही व्रत हैं जिनमें एक विशेष प्रकार का आचरण अपेक्षित होता है। भोजन करने या न करने से इसका विशेष संबंध नहीं। यह तो किसी उद्देश्य के लिए किया गया एक प्रण, संकल्प (resolve) है। दिनभर भोजन न करना अथवा स्वल्प भोजन (उपवास) भी उस आचरण का एक अंग हो सकता है, जैसे एकादशी, प्रदोष या सत्यनारायण व्रत में। उपवास ••• उपवास (उप+√वस्) का मूल अर्थ तो अपने आत्म, आराध्य, गुरु या मंत्र के निकट होने, वसने के लिए किया जाने वाला विशेष आचरण था जिसमें भोजन सहित अनेक सुविधाओं को त्यागकर एकोन्मुखी होना उद्देश्य होता था। धीरे-धीरे यह भोजन न करने का पर्याय हो गया। धार्मिक दृष्टि से या किसी सामाजिक - राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भोजन न करने (अनशन) के अर्थ में भी आज उपवास शब्द का प्रयोग होता है। जैसा कि कहा गया, उपवास समग्र व्रत-विधान का एक अंग भी है।  आगे जब यह भोजन न करने का पर्याय हो गया तो राजनीतिक अस्त्र के रूप में भ

आटा, चून और पीठ

आटा   āṭā  (सं) आर्द (जोर से दाबना) > ( प्रा) अट्ट से व्युत्पन्न हुआ है। अर्थ है किसी अन्न का पिसा चूरा, पिसान (पिसा अन्न), बुकनी,  पाउडर। इसके लिए दूसरा संस्कृत शब्द है चूर्ण जिससे हिंदी में चून बना। अनेक प्रकार का चून (चूर्ण) बेचने वाले कहलाए परचूनिये ।     'आटा' के लिए फ़ारसी शब्द है आर्द, जो संस्कृत आद का ही प्रतिरूप प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं में आटो (गुजराती), ओटू (कश्मीरी), पीठ (मराठी), पीठो (नेपाली), अट्टसु (कन्नड़), आटा (पंजाबी, बांग्ला, ओड़िया)। तमिल और मलयालम में आटा से भिन्न "मावु" है। अब हिंदी क्षेत्र में आटा शब्द गेहूँ के आटे के लिए रूढ़ हो गया है। अन्य अनाजों के आटे के लिए आपको अन्न का नाम भी साथ लगाना पड़ता है; जैसे चावल का आटा, जौ का आटा, बाजरे का, चने का, सिंघाड़े का, कुट्टू का आदि। धुले गेहूँ के बहुत महीन आटे को मैदा और चने के ऐसे ही विशेष आटे को बेसन (वेशन सं > वेषण प्रा) कहा जाता है। कुमाउँनी में आटा केवल जौ का आटा ही है। उसके साथ जौ कहने की आवश्यकता नहीं।  गेहूँ के आटे के लिए अवश्य कहा जाता है ग्यूँक् पिस्यूँ (पिस्यूँ =पिसान से

स्वजन-परिजन

संस्कृत की √जन् धातु से बने हैं जन, जनक, जननी, जनन, जन्म आदि तत्सम शब्द। उपसर्ग-प्रत्यय लगने पर इस जन से और बहुत से शब्द बनते हैं -  दुर्जन, सज्जन, स्वजन, जनशून्य, निर्जन (जनहीन), विजन (बीरान), परिजन, कुटुंबी जन, महाजन आदि। यों तो जन शब्द पुल्लिंग-स्त्रीलिंग दोनों के लिए आ सकता है किंतु हिंदी में जना (एक) पुल्लिंग शब्द है जिससे बहुवचन बनता है जने। जैसे: एक जना इधर आओ, दो जने बैठे रहो। हिंदी में अब प्रायः स्वजन और परिजन को समानार्थी मान लिया गया है, जबकि शब्द रचना की दृष्टि से दोनों भिन्न हैं। स्वजन में अपने (स्व) कुटुंब के रक्त संबंधी, पति-पत्नी, माता-पिता, चाचा, ताऊ, मामा आदि कुटुंबी जन ( वे उसी कुटुंब में न रहकर देश-विदेश में कहीं भी हो सकते हैं), आत्मीय, नाते - रिश्तेदार आएँगे। मिथिला के समाज में स्वजन-परिजन में पर्याप्त विभेद है रीति रिवाज, मान्यताओं और खानपान आदि सामाजिक व्यवहार में। विभेद से इतना तो स्पष्ट है कि स्वजन में निकटतम बांधव और संबंधी आते थे, परिजनों में स्वजनेतर। पहले ज़माने में कुमाऊँ में भी यह भात-भेद बहुत था। 'परि-' उपसर्ग परितः, चारों ओर, आसपास के अर्थ में आ

कर्तव्य चर्चा

अकर्तव्य कर्त्तव्य हिंदी में "कर्तव्य" का उच्चारण "कर्त्तव्य" किया जाता है,इसलिए कुछ लोग कर्त्तव्य लिखते भी हैं। सामान्यतः हिंदी में /त/ के द्वित्त्व के लिए कोई नियम नहीं, यद्यपि संस्कृत में /त/ के द्वित्व के साथ 'कर्त्तव्य' की सिद्धि अष्टाध्यायी के अनुसार काशिका के तृतीय अध्याय में दी गई है। शब्दकल्पद्रुम में 'कर्त्तव्य' की ही प्रविष्टि दी गई है। मैक्डोनाल्ड ने कर्त्तव्य की प्रविष्टि दी है किंतु अर्थ दिया है विनाश के योग्य। हिंदी में प्रयुक्त इस तत्सम शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझी जा सकती है: √कृ (>हि √कर्) + सं तव्यत् (>हि तव्य)] = कर्तव्य। उच्चारण करते हुए द्वित्त्व सुनाई अवश्य देता है, यह कुछ अन्य भाषिक कारणों से होता है। बहुत पहले काशी नागरी प्रचारिणी सभा के नाम पट्ट और पत्र शीर्षक (लेटरहेड) पर उनके कार्यालय को "कार्य्यालय" लिखा होता था। पर इस प्रक्रिया की वर्तनी को उन्हीं के कोश में स्थान नहीं मिला।  हिंदी में प्रभात प्रकाशन से छपे 'बृहत् हिंदी शब्दकोश' में डॉ.श्याम बहादुर वर्मा ने दोनों प्रविष्टियाँ, कर्तव्य/कर