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मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

थाली और ताली

थाली इधर कुछ विशेष घटनाओं ने थाली शब्द को बहुत प्रसिद्ध कर दिया है। इसकी व्युत्पत्ति पर ध्यान जाना स्वाभाविक है। इसे संस्कृत के स्था धातु से निष्पन्न माना जा सकता है किंतु रोचक यह है कि संस्कृत में स्थाली का अर्थ थाली नहीं है। स्थाली भोजन पकाने का मिट्टी का बर्तन है। स्था धातु से ही एक दूसरा शब्द बनता है स्थाल  जिसका अर्थ भोजन बनाने का पात्र और भोजन करने का पात्र दोनों हैं। स्थाल > थाल से ही स्त्रीलिंग शब्द बनता है थाली अर्थात छोटा थाल। थाली के प्रमाण इतिहास में बहुत पीछे तक जाते हैं हड़प्पा सभ्यता (3500 - 2500 ईपू) के प्राचीन स्थल कालीबंगा की खुदाई  में जो पात्र मिले हैं उनमें थाली लोटा भी हैं। मूलतः थाली मिट्टी की बनी होती थी किंतु अब धातु से निर्मित होती है। यह जानना रोचक हो सकता है कि उस जमाने में थाली केवल अमीर लोग प्रयोग में लाते थे। गरीबों के लिए शायद पात या पत्तल हो या कौन जाने वे करपात्री बनते हों।  आज प्रयोग की दृष्टि से देखें तो हिंदी में थाली एक पात्र भी है और पात्र में परोसे गए संपूर्ण व्यंजनों के लिए एक सामूहिक नाम भी। इस प्रकार गुजराती थाली, बंगाली थाली, व्रत वा

जूठा

हिंदी की सांस्कृतिक शब्दावली में एक शब्द है "जूठा।" किसी के द्वारा खाना खाते हुए छुआ, खाने के बाद बचा अन्न, पीने से बचा पानी, जिस थाली या गिलास में खाया-पिया गया हो, खाना खाने वाले हाथों से छुआ हुआ पात्र आदि सबके लिए "जूठा" विशेषण का प्रयोग किया जाता है। एक बार की रसोई में प्रयुक्त सभी बर्तन भी जूठे माने जाते हैं। इतना ही नहीं, भोजन के बाद पूरा चौका जूठा हो जाता है। नए सिरे से सफाई के बाद ही इसका उपयोग किया जाता है। स्वच्छता की दृष्टि से यह अच्छी परंपरा है। पश्चिमी सभ्यता में "जूठा" की कोई विशेष संकल्पना ही नहीं है, इसलिए जूठा के लिए कोई उपयुक्त शब्द भी नहीं है। वे leftover food, remnants, pickings, refuse, garbage से काम चलाते हैं या lier food जैसे हास्यास्पद अनुवाद दिखाई देते हैं। हिंदी में जूठा शब्द को संस्कृत "जुष्ट" से व्युत्पन्न माना जाता है जो √जुष् धातु से बना है। जुष्ट से प्राकृत भाषा में जुट्ठ, हिंदी में जूठा। रूप रचना की दृष्टि से यह विकास स्वाभाविक लगता है किंतु अर्थ की दृष्टि से देखें तो जूठा संस्कृत के  "उच्छिष्ट"

फगुनहट मिल गई अचानक

आज सुबह फगुनहट मिल गई अचानक कनखियों से मुस्काई और बोली – 'ए – ए - ए-- कुछ ठहरो तब बढ़ो आगे अभी -अभी ताल में नहाई है किशोरी धरती और- बेपरदा बैठी है धूप में सुखा रही है लक-दक पीली ओढनी सरसों के खेत में ... '...उधर बौराने लगे हैं आम चम्पा का बरन और गोरा हो आया है गदरा गया है अंग-अंग कलियों का कल तक खिल जाएंगी टेसू की कलियाँ बरस पडेगा दहकता रंग क्षितिज के आर-पार भोर से ही घूमने लगेंगी फगुआ गाती टोलियाँ ... '... पर कोयल का कहीं अता-पता नहीं है न सेमल के गाछ में है, न आम की डाल में न टेसू के वन में है, न महुए के पेड़ में न जाने कहाँ चली गई पगली चलती हूँ, ढूँढ लाती हूँ उसे ...’ बेचारी फगुनहट आगे निकल गई ! मैं कैसे कहता—वह नहीं मिलेगी तुम्हें | उसे अब क्या पता कि कब गंधाती है मंजरी कब बौराते हैं आम कब कोसाता है महुआ कब घूमते हैं मदमाते-फगवाते होरिहार... कोयल तो अब शहर में बस गई है ! मैं कैसे कहता मैं किसे कहता ? भोली फगुनहट अब भी ढूँढती फिर रही है कोयल को, उसकी बोली को ... ... |

जान-पहचान की बात

जान-पहचान के बहाने यों तो पहचान पत्र भी अब अनेक प्रकार के बनने लगे हैं पर आपकी पहचान आधार कार्ड या किसी पहचान पत्र तक ही सीमित नहीं है । समाज में, कार्यालय में, आप अपनी पहचान बनाते हैं। कहीं काम निकालना हो तो जान-पहचान ढूंढ़ी जाती है। और सबसे बड़ी बात यह कि आपका चेहरा हमें जाना-पहचाना लगता है। तो क्या कभी आपने सोचा कि यह #पहचान शब्द बना कैसे? संस्कृत में एक शब्द है प्रत्यभिज्ञान। वही प्रत्यभिज्ञान जो शकुन्तला के संकटों का कारण बना था। यह पहचान भी संस्कृत के प्रत्यभिज्ञान शब्द का ही तद्भव है और इस शब्द में भी #ज्ञान प्रधान है। उपसर्ग लगे हैं दो-दो। प्रति और अभि उपसर्गों से बनता है प्रत्यभिज्ञान > (प्रति + अभि + ज्ञा+ल्युट्) > पहचान। पहचान के ही जोड़े का एक शब्दयुग्म है - जान-पहचान। जान की जान ज्ञान में बसी है। ज्ञान से निष्पन्न है प्रत्यभिज्ञान और इन दोनों से आज आपकी जो जान-पहचान बनी, उसे आप दृढ़ रखें।