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ढाई आखर

 बचपन में पहाड़े रटाए जाते थे: दो दूनी चार।  पूर्णांकों के बाद अपूर्ण अंकों के पहाड़ों में पहला पहाड़ा था- एक पव्वा पव्वा, दो पव्वा आधा..। फिर आते थे अद्धा, पौना, सवा, डेढ़ और ढाई। आज पव्वा जिस अर्थ में भी जाना जाता हो, सोचना पड़ता है यह पव्वा क्या है? असल में यह पाव है जो संस्कृत के पाद से बना है। एक संख्या को जब हम चार भागों में विभक्त करते हैं तो उनमें से एक भाग पाद अर्थात पाव (1/4), चौथाई है। दो पाव (2/4) आधा (1/2) और तीन पाव (3/4) पौना। इनकी व्युत्पत्ति थोड़ी रोचक है। ये चले तो संस्कृत से हैं लेकिन प्राकृत, अपभ्रंश तथा अनेक लोक भाषाओं में ऐसे तराशे गए हैं कि आज सरलता से पता ही नहीं लगता कि इनका मूल क्या था! तो एक के साथ जब पाद (पाव) जुड़ा तो शब्द बना सपाद अर्थात पाद सहित और सपाद का बन गया सवा। पुनः शंका कि सवा एक क्यों नहीं? प्रसंगवश यह जानना रोचक होगा कि एक की संख्या लोक में कुछ हीन, रीती, अशुभ-सी मानी जाती है। इसलिए गणना के प्रारंभ में एक का प्रयोग नहीं किया जाता था। पुराने पंसारी अपनी तौलें गिनते हुए पहली तौल को "एक" कहकर गिनना प्रारंभ नहीं करते, वे पहली तौल को "राम

स्वप्न और सत्य: संस्कृत के संदर्भ में

  केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय विधेयक 2019 राज्य सभा से भी पारित हो गया है| इससे पहले दिसंबर २०१९ में इसे लोकसभा पास कर चुकी है| अब चूंकि कुछ संशोधनों के साथ राज्यसभा से पारित हुआ है, इसलिए पुनः लोकसभा भेजा जाएगा और पारित किए जाने पर अधिनियम बन जाना निश्चित है क्योंकि लोकसभा से पारित होना अब एक औपचारिकता भर है| दुविधा यह है कि क्या इसे बहुत बड़ा कदम मान कर सरकार को बधाई दी जाए? यों इस विधेयक में नया कुछ नहीं है सिवा इसके कि इसके पारित हो जाने से दिल्ली स्थित राजकीय संस्कृत संस्थान और लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत संस्थान तथा तिरुपति स्थित वेंकटेश्वर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्ज़ा मिल जाएगा| कोई नया विश्वविद्यालय नही खोला जाना है|देश में पहले से चल रहे १५- १६ संस्कृत विश्वविद्यालयों में से ही इन तीनो को चुना गया है और उन्हें केंद्र शासित घोषित किया जा रहा है| इससे एक लाभ तो यह है कि विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा बढ़ती है। साथ ही बजट अनुदान आदि में वृद्धि होती है। परिणामस्वरूप कर्मचारियों के वेतन बढ़ जाते हैं| किन्तु केन्द्रीयकरण से शिक्षा और शिक्षण की गुणवत्ता

कविराज और वैद्यराज

  कवि शब्द संस्कृत की √कु धातु से बना है। अदादि गण, परस्मैपदी कु के अनेक अर्थों में हैं कूजना, गूँजना, मधुर स्वर करना। कु से इ प्रत्यय जोड़कर निष्पन्न होता है कवि। प्रयोग की दृष्टि से कवि अनेक आयामी है। सर्वज्ञ, प्रतिभाशाली,  विचारवान, बुद्धिमान, विचारक, ऋषि, कविता रचने वाला, प्रशंसनीय आदि इसके अर्थ हैं। सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शुक्राचार्य, वाल्मीकि को भी कवि कहा गया है। कवि शब्द के साथ जो प्रमुख अर्थ बिंब बनता है उसमें प्रधान है कोई रचनाकार, जो काव्य रचना करता हो। संस्कृत में तो कवि सब प्रकार के रचना कर्मियों को कहा गया है चाहे वह कविता, नाटक, कहानी, गल्प,  निबंध कुछ भी लिखता हो। दूसरी ओर भगवान विष्णु को भी कवि कहा गया है । प्रबुद्ध, मनीषी, विचारवान भी कवि हैं। उपनिषद के कथनानुसार कवि का एक अर्थ विद्वान भी है। यथा- "...क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत् कवयो वदन्ति।"(कठोपनिषद्) किसी ने तो यह भी कह दिया के कवि अनुशासन या नियमों के अंकुश के परे होते हैं- "निरंकुशा हि कवयः।" जो हो, किंतु मेरी समस्या यह है कि आयुर्वेद के विशेषज्ञों को "कविराज&

लट्ठ लकार : एक संस्मरण

  भाषा में रुचि होना कभी-कभी ऐसा सिर दर्द उत्पन्न करता है जो माइग्रेन से भी भयानक हो। लहरें-सी उठती हैं और दर्द वाला बेचैन। कोई चिकित्सक न मिले तो दशा बिगड़ती जाती है। ये भौतिक चिकित्सक काम आते नहीं । ऐसा ही एक दर्द एक बार मेरे सिर में जन्मा। मान लिया मैंने कि यह तो ऐसी समस्या है जिसका कुछ बड़ा ही निदान होना चाहिए। आखिर आचार्य शंकर ऐसी व्याकरणिक अशुद्धि कैसे कर सकते हैं! बस, सिर घूम गया। सौभाग्य से उन दिनों राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान परिषद की अनेक गोष्ठियाँ साथ-साथ चल रही थीं। हिंदी-संस्कृत के बड़े - बड़े विद्वान पधारे थे। समाधान के लिए एक से एक शलाका पुरुष उपस्थित थे। पहले मैंने परम विद्वानों के पास न जाकर अपने साथ दूसरी पंक्ति के सहयोगियों के सामने निवेदन किया कि भाई शंकराचार्य ऐसी गलती कैसे करेंगे! वे भी सुनकर चौंके। बात आगे बढ़ी। एक हमारे अभिन्न आदरणीय मित्र जो अब दिवंगत हो गए और तब एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस थे, उन से निवेदन किया। थोड़ी देर विचारनेके बाद उन्होंने कहा आचार्य शंकर का प्रयोग है, सो आर्ष प्रयोग मान कर चलिए। हम तो कुछ भी मानने को तैयार थे फिर भी एक और

निराघाती (बरौनी) ऱ-कार

  निराघाती  (unstressed) रेफ: बरौनी ऱ-कार (eyelash ra ऱ < r̆>) हिंदी में रेफ के लिए व्यवस्था है कि वह स्वर और व्यंजन के बीच आने पर शिरोरेखा पर लगता है और उसकी अक्षर सीमा पहले अक्षर के साथ होती है। जैसे गर्व  (गऱ् व) कार्य (काऱ य)। दूसरा स्वर सहित र किसी शुद्ध (हलंत) व्यंजन के साथ जुड़ता है, इसलिए वह उस व्यंजन की खड़ी पाई के साथ लगता है और जिन व्यंजन आकृतियों में खड़ी पाई नहीं होती वहाँ उनके पेंदे पर गोलाई के साथ। जैसे क्रम, ग्रीवा, राष्ट्र आदि। ध्यान रहे कि यह पदांत र स्वर सहित र है जो किसी स्वर रहित व्यंजन से जुड़ता है और उसके चरण-शरण गह लेता है। किंतु यहाँ चर्चित रेफ का ऱ्, आकार और उच्चारण दोनों में शिरोरेखा वाले रेफ से भिन्न है। इस ऱ् का उच्चारण आघात रहित और कुछ निरंतर कंपन trill से होता है, इसलिए इसे निराघाती या प्रवाही कहना उचित जान पड़ता है। IPA के अनुसार < r̆ > । नागरी लिपि की वर्णमाला आकृति में यह कुछ टेढ़े डैश की भाँति होता है और अक्षर के मध्य लगाया जाता है। मानव बरौनियों से समानता के कारण हम "बरौनी रकार" कह रहे हैं!  यह बरौनी रकार नागरी लिपि का ऐसा संकेत ह

नल और बंबा

  बम्बा - कथा पुराण कथाओं में  निषध देश के  विख्यात  राजा नल  को  अगर थोड़ी देर के लिए भूल जाएँ  तो संस्कृत में "नल" शब्द नरकुल घास के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसी नरकुल से लेखनी बनाई जाती थी जिसका उपयोग लगभग सौ वर्ष पहले तक खूब होता रहा है। शहनाई आदि कुछ सुषिर वाद्यों की फूंक मारने वाली नलकी (पींपनी) भी इसी नरकुल से बनती थी। नरकुल घास की विशेषता है की इसके छोटे से तने के टुकड़े भीतर से पोले होते हैं। इस पोलेपन को लेकर ही आगे चलकर धातु या काष्ठ के बने ऐसे टुकड़े को भी नल/नाली कहा जाने लगा जो भीतर से पोले बनाए जाते थे और फूँकने या पानी आदि के लिए प्रयुक्त होते थे। आगे चलकर इनका व्यापक उपयोग जलवहन में होने लगा। अर्थ विस्तार हुआ और यह पानी के अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा जैसे: नल आ गया, नल चला गया।  बिहारी ने तो यहां तक कह दिया नर की अरु नल-नीर की, गति एकै कर जोइ। जेतो नीचो ह्वै चले, तेतो ऊँचो होइ।।  बम्ब पिछली सदी के अधिकांश वर्षों में घरों, स्नानागारों, शौचालयों में जल वितरण के निजी साधन ( प्राइवेट कनेक्शन) कम लोगों के पास हुआ करते थे। मैदानी गाँवों में कुआँ, बावड़ी, तालाब, नदी या