बचपन में पहाड़े रटाए जाते थे: दो दूनी चार। पूर्णांकों के बाद अपूर्ण अंकों के पहाड़ों में पहला पहाड़ा था- एक पव्वा पव्वा, दो पव्वा आधा..। फिर आते थे अद्धा, पौना, सवा, डेढ़ और ढाई। आज पव्वा जिस अर्थ में भी जाना जाता हो, सोचना पड़ता है यह पव्वा क्या है? असल में यह पाव है जो संस्कृत के पाद से बना है। एक संख्या को जब हम चार भागों में विभक्त करते हैं तो उनमें से एक भाग पाद अर्थात पाव (1/4), चौथाई है। दो पाव (2/4) आधा (1/2) और तीन पाव (3/4) पौना। इनकी व्युत्पत्ति थोड़ी रोचक है। ये चले तो संस्कृत से हैं लेकिन प्राकृत, अपभ्रंश तथा अनेक लोक भाषाओं में ऐसे तराशे गए हैं कि आज सरलता से पता ही नहीं लगता कि इनका मूल क्या था! तो एक के साथ जब पाद (पाव) जुड़ा तो शब्द बना सपाद अर्थात पाद सहित और सपाद का बन गया सवा। पुनः शंका कि सवा एक क्यों नहीं? प्रसंगवश यह जानना रोचक होगा कि एक की संख्या लोक में कुछ हीन, रीती, अशुभ-सी मानी जाती है। इसलिए गणना के प्रारंभ में एक का प्रयोग नहीं किया जाता था। पुराने पंसारी अपनी तौलें गिनते हुए पहली तौल को "एक" कहकर गिनना प्रारंभ नहीं करते, वे पहली तौल को "राम...
कुल व्यू
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