काश, केदारनाथ ... ! मेरी केदारनाथ की यादें कोई छह दशक पुरानी हैं पर आज भी ताज़ा हैं | अगस्त्यमुनि से पैदल यात्रा, लगभग 3,000' से 11,500' तक की धीरे-धीरे कठिन और दुर्गम होती चढाई जिसका अंतिम चरण तो यात्री के धैर्य और ऊर्जा की परख होता था । आज कौन विश्वास करेगा कि तब केदारनाथ में रात में रहने का रिवाज़ नहीं था | कुछ साधु-सन्यासी, पुजारी, रावल, देवालय के सेवक, उनसे जुड़े कुछ पेशेवर और कुछ गिने-चुने ढाबे वाले ही वहाँ टिकते थे। यात्री तड़के ही गौरी कुंड से चलकर केदारनाथ पहुँचते और दर्शन करने के बाद शाम तक गौरीकुंड या रामवाडा लौट आते | जो लोग इतनी लंबी पैदल यात्रा करने की स्थिति में न हों, वे रामवाडा में पडाव करते और केदारनाथ के दर्शन कर वापिस रामवाडा या गौरीकुंड लौटते थे। यदि किसी विवशता से केदारनाथ परिसर में रुकना ज़रूरी हो जाए तो कोई होटल या गेस्टहाउस नहीं था, पंडे ही व्यवस्था करते थे । उनके पास यजमान यात्रियों द्वारा दान में दिए गए बिस्तर, रजाइयाँ या कम्बल इतने होते थे कि ऐसे यात्रियों को आकस्मिक बर्फ़बारी और ठंडक में भी कोई कठिनाई नही होती थी । कुछ धर्मशालाएँ भी थीं प...
कुल व्यू
||वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये ||
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