निरोगी और नीरोगी
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उपसर्ग अव्यय होते हैं फिर भी दोनों में कुछ मूल रूप से अंतर है। अव्ययों का स्वतंत्र प्रयोग हो सकता है किंतु उपसर्गों का नहीं। उपसर्ग किसी न किसी धातु या निष्पन्न शब्द के साथ जुड़कर नए शब्द का निर्माण करते हैं। अव्ययों के कुछ निश्चित अर्थ होते हैं उपसर्ग के नहीं। कहा भी गया है कि उपसर्ग लगा देने से धातु का अर्थ अन्यत्र लिया जा सकता है जैसे एक 'हार' शब्द के साथ कुछ उपसर्ग प्रहार, संहार, आहार इत्यादि भिन्न-भिन्न शब्दों का निर्माण करते हैं जिनके अर्थ में भी विविधता है।
संस्कृत में निर् उपसर्ग का एक अर्थ संकेत निषेध, अभाव, रहितता ओर है। निर्द्वन्द= द्वंद्व रहित, निरभिमान अभिमान रहित। संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार निर् + विघ्न = निर्विघ्न होगा किंतु अगले शब्द का आदि वर्ण 'र्' होने से निर्+ रुज - नीरुज, नीरव, नीरस बनेंगे (कुछ अपवाद भी हैं)। नीरोग भी (नि:> निस्/निर् + रोग) संस्कृत में विसर्ग संधि का उदाहरण है।
विसर्ग संधि के बारे में संस्कृत का एक नियम है, 'रोरि'। रोरि के अनुसार यदि पहले शब्द के अन्त में ‘र्’ आए तथा दूसरे शब्द के पूर्व में ‘र्’ आ जाए तो पहले ‘र्’ का तो लोप हो जाता है तथा उससे पहले जो ह्रस्व स्वर हो वह दीर्घ में परिवर्तित हो जाता है। जैसे
निर् + रस = नीरस
निर् + रव = नीरव
निर् + रोग = नीरोग
अब प्रश्न यह है कि हिंदी में कितने लोग इस नियम को जानते हैं और जानने वालों में से भी कितने लोग मानते हैं? रोरि के अनुसार तो दुर् + राज को दूराज, अंतर् + राष्ट्रीय को अंताराष्ट्रीय हो जाना चाहिए, जबकि लोकप्रयोग को महत्त्व देते हुए हिंदी में दुराज और अंतर्राष्ट्रीय को शुद्ध मानकर अपना लिया गया है।
यों भी निर् उपसर्ग हिंदी में आते-आते (प्रायः तद्भव शब्दों के साथ) नि रह गया। निर्> नि से बने हिंदी शब्दों के अनेक उदाहरण हैं —निकम्मा, निकलंक, निखट्टू, निभागा, निगुरा, निगुनी, निपाती, निपूता आदि ।
किशोरी दास वाजपेयी के अनुसार 'नि' उपसर्ग 'निखट्ट' 'निधड़क' आदि में है। यह संस्कृत के 'निर्' से' र्' अलग कर के बनाया गया है। संस्कृत में 'निर्' से भिन्न 'नि' उपसर्ग भी है परन्तु एक सिद्धान्त हिन्दी की विकास-पद्धति में यह दिखाई देता है कि 'अपने' या तद्भव शब्दों में हिन्दी संस्कृत के तद्रूप उपसर्ग नहीं लगाती है। इसलिए हिन्दी के 'नि' उपसर्ग को 'निर्' का ही तद्भव रूप मान लेना चाहिए । यही नहीं, वे नि उपसर्ग को समझाते हुए एक उदाहरण 'निरोगी' भी देते हैं (हिंदी व्याकरण, पृष्ठ 285)। "नि (संस्कृत- निर् = रहित); जैसे-निकम्मा, निखरा, निडर, निरोगी, निहत्था ।"
शुद्ध-अशुद्ध अपने आप में सापेक्ष शब्द हैं। खरे सोने में भी कुछ मिलावट शुद्ध मानी जाती है, यह तो भाषा है। हमें सतर्क रहना होगा कि भाषा इतनी अशुद्ध न हो कि प्रोक्ति हास्यास्पद लगे किंतु व्याकरण के नियमों के नाम पर शुद्धता की चादर ऐसी भी न ओढ़ाई जाए कि उसमें दाएँ-बाएँ फैलना, कलियाँ फूटना बंद हो जाए।
आज बहुत से शुद्धतावादी निरोग को अशुद्ध और नीरोग को शुद्ध मानते हैं। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से उनका मानना सही है। होना यह चाहिए कि नीरोग शुद्ध तत्सम माना जाए और निरोग को तद्भव। हिंदी में नीरोग की अपेक्षा निरोग का लोक प्रचलन अधिक है — पहला सुख निरोगी काया।
निरोग उन शब्दों में से है जो संस्कृत के व्याकरण से आगे निकल आए हैं। उनका अपना व्याकरण और अपनी शब्द निर्माण प्रक्रिया है। इसलिए हिंदी अपने लिए जो अपनी सरणि बना रही है, उसे समझना चाहिए।
(विमर्श का स्वागत है।)
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