उत्तराखंड में वसंत के लोकपर्व फूल देई (फूल संक्रांति) का 'देई'/देली (=दहलीज , threshold ) शब्द संस्कृत के 'देहली' से व्युत्पन्न है: देहली> देली> देई। दरवाज़े के चौखट की निचली आधार लकड़ी को देहली कहा जाता है। देहली से कहीं देहरी और कहीं देई बनने (ल के र् या स्वर/अर्धस्वर में बदलने) के पीछे भाषावैज्ञानिक कारण हैं। हिंदी में यह देहरी बन गया है। दहलीज और ड्योढ़ी भी इसी से व्युत्पन्न हैं।
"देहरी तो परबत भई, अँगना भयो बिदेस।"
उत्तराखंड में "फूलदेई" बच्चों को प्रकृति से जोड़ने का लोकपर्व है। एक लोककथा के अनुसार प्योंली नाम की सुंदर कन्या को एक राजकुमार पहाड़ से अपने महल में ले जाता है। महल की सारी सुविधाओं के बीच जीते हुए भी प्योंली पहाड़ को नहीं भूल पाती, दिन प्रतिदिन दुबलाती जाती है। अपने पहाड़ की याद में वह अधिक दिन नहीं जी पाती। मर जाने पर राजकुमार वापिस उसी पर्वत पर उसका अंतिम संस्कार करता है। प्योंली उसी राख से फूल बनकर जनमती है और वसंत का शृंगार बनती है। पहाड़ों पर जाड़ों के उतरते-उतरते पीली प्योंली का फूलना वसंत के आगमन का उद्घोष माना जाता है।
एक दूसरी लोककथा के अनुसार प्योंली को अपने सौंदर्य पर बहुत घमंड हो गया था। कहते हैं भगवान विष्णु जब फूलों का वरण करने आए तो प्योली को पक्का विश्वास था कि उसे छोड़कर किसी और को वे कैसे चुन सकते हैं। पीतांबर विष्णु के पीलेपन से प्योंली के पीलेपन का साम्य भी तो है। विष्णु तो ठहरे विष्णु, अंतर्यामी, मन की बात जानने वाले। वे समझ गए प्योंली के मन को और उसके सामने से निकल गए यह कहते हुए कि देखो प्योंली, मुझे घमंड पसंद नहीं है। जब भगवान विष्णु ने प्योंली को त्याग दिया तो और देवता कैसे स्वीकार करते। इसीलिए पहाड़ में एक परंपरा है कि प्योंली का फूल किसी देवता की पूजा में प्रयुक्त नहीं होता। बस, फूलदेई संक्रांति में देली पूजने के काम आता है।
चैत संक्रांति "फूलदेई" को बच्चे मुंँहअँधेरे उठकर पास के जंगल से प्योंली, पैंयाँ, बासिंग (वसाका, अडूसा), ग्वीऱ्याल (कचनार), किनगोड़़ (दारुहरिद्रा), बुराँस आदि के फूल बीनकर अपने आस-पड़ोस घूमते हुए देहरी-द्वार की पूजा कर शुभकामनाएँ देते हैं-
"फूल देई,छम्मा देई
दैणी द्वार,भरौ भकार
ये देई, यो द्वार
बारम्बार नमस्कार।"
गढ़वाल के कुछ अंचलों में इस अवसर पर नन्हे फुल्यार अपने साथ देवी की डोली लेकर चलते हैं, जिसे घोघा माता की डोली कहा जाता है। बच्चे मस्त होकर गाते हैं- "जै घोघा माता, पैय्याँ पाती फ्योंल्या फूल"।
देहली पूजन की प्रथा बहुत पुरानी है। मेघदूत की यक्षी विरह के दिनों की गणना के लिए नित्य देहरी पर उतने ही फूल रखा करती है
“शेषान् मासान् गमनदिवसस्थापितस्यावधेर्वा
विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीमुक्तपुष्पैः ॥ ॥मेघदूत, उ. मे. २७॥
लोकरीति थी कि देहली (चौखट) को सिंदूर- तिलक लगाकर माँ-दादी पूजती थीं। अधिक दिन के लिए जातीं तो इसे प्रणाम करतीं और लौटने पर भी। कम ही लोगों को याद होगा कि बचपन में नानी-दादी देहरी पर बैठने से मना करती थीं, क्योंकि देहरी पर लक्ष्मी विराजती हैं और परिवार के धन-धान्य की रक्षा करती हैं। अमावस और पूनो को देली अवश्य लीपी जाती थी। लिपी हुई देहरी को तब तक नहीं लाँघा जाता था, जब तक उस पर अक्षत-पुष्प न चढ़ाए जाएँ। कुमाऊँ में लड़कियाँ ससुराल को विदा होते समय सदा 'देलि (देइ) पूजा' करती हैं। देश के अनेक भागों में, विशेष कर महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों में आज भी देली पूजन प्रत्येक गृहस्थ का नित्य नियम है।
नए घर में प्रवेश के अवसर पर वास्तु देवता के पूजन का महत्वपूर्ण अंग है द्वार पर देहली पूजन। "नमोऽधस्ताञ्च देहल्यै वास्तुपुंसे नमो नमः"। अनेक समाजों में विवाह के बाद विदाई के समय नवविवाहिता अपने पीहर की देहरी का पूजन करके ससुराल को बिदा होती है और ससुराल में पहुँचने के बाद भी पति के साथ देहरी पूजन उसका पहला कार्य होता है।
अब घरों से देहरी ही गायब है। 'फ़्रेम' के तीन ही भाग हैं, देहरी/देली वाले भाग को फर्श लील गया। देली पर बैठना, देली न छोड़ना, देहरी पर कदम न रखना जैसे मुहावरे हुआ करते थे। देहरी के न रहने से तर्क और दर्शन में देहली- दीपक न्याय, काव्यशास्त्र में दीपक अलंकार समझना-समझाना कठिन हो गया।
कभी देहरी के सम्मान का प्रश्न परिवार के सम्मान का प्रश्न होता था। इष्ट देवताओं से मनाया जाता था- " इष्टदेव, इस देहरी की लाज रखना।" जब देहरी नहीं रही तो लाज का क्या करना।
वे दिन, वे लोग, वे विश्वास इतिहास हो गए।
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