निखट्टू ....
लोक में प्रचलित जनपदीय शब्दों की व्यंजना अद्भुत होती है। दैनंदिन विविध लोक व्यवहार में आने वाले ऐसे हजारों शब्द हैं। इससे पहले कि ये शब्द विलुप्त हो जाएँ, इनका संग्रह और अध्ययन किया जाना चाहिए। विद्यानिवास मिश्र (हिंदी की शब्द संपदा) तथा कुछ अन्य विद्वानों ने जनपदीय शब्दों पर कुछ महत्वपूर्ण कार्य किए हैं किंतु अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है।
होली के इस मौसम में एक जनपदीय शब्द याद आया, 'निखट्टू'।
ब्रज की एक प्रसिद्ध होली है, "रंग में होली कैसे खेलूँ री मेैं साँवरिया के संग।" भले ही होली मूलतः ब्रज क्षेत्र की हो किंतु इसकी व्याप्ति और लोकप्रियता संपूर्ण उत्तरी भारत में है। सच तो यह है कि भारत या बाहर, जहाँ भी होली मनाई जाती है वहाँ इस होली को अवश्य गाया जाता है। स्त्री-पुरुष हुड़दंग मचाते हैं और मस्ती में झूमते-गाते हैं -
" रंग में होली कैसे खेलूँ री मैं साँवरिया के संग!
कोरे-कोरे कलश भराये, जा में घोरौ रंग
भर पिचकारी सन्मुख मारी, चोली है गई तंग।
ढोलक बाजै, मजीरा बाजै और बाजै मिरदंग,
कान्हाँ जी की वंशी बाजै, राधा जी के संग।
लहँगा तेरौ घूम घुमारौ, चोली है पचरंग,
खसम तुम्हारे बड़े निखट्टू, चलौ हमारे संग।"
इस होली गीत में प्रयुक्त 'निखट्टू' शब्द की ओर बरबस ध्यान जाता है। निखट्टू न केवल ब्रज, बल्कि हिंदी की सभी उपभाषाओं, बोलियों में प्राप्त है।
रचना की दृष्टि से निषेध वाचक उपसर्ग नि + खट्टू ( न खटने वाला), कोई काम न करने वाला व्यक्ति निखट्टू है। वह आदमी जो कुछ न कमाए, निकम्मा, नाकारा, आलसी। हिंदी शब्द सागर के अनुसार निखट्टू का अर्थ है- अपनी कुचाल के कारण कहीं न टिकनेवाला, जिसका कहीं ठिकाना न लगे, इधर-उधर मारा-मारा फिरनेवाला, जमकर कोई काम धंधा न करनेवाला ।
स्त्रियाँ अपने निठल्ले एवं कर्महीन पति के लिए कहती हैं:
"निखट्टू आवै लड़ता, कमाऊ आवै डरता"
इधर निकम्मा और न कमाने वाला निखट्टू पति हर समय बीवी से लड़ता रहता है और उधर कमाऊ आदमी लड़ता-झगड़ता नहीं, शांत और विनम्र रहता है और कमाई करके चुपचाप घर लौटता है।
लोक में निखट्टू की महिमा न्यारी बताई गई है। निखट्टू से कोई काम ढंग से नहीं होता। बुवाई के मौसम में मटर का बीज लेने भेजो तो फलियाँ खाने के मौसम में लौटे। ऐसा बौड़म कि फूल मँगाओ, गोभी ले आए।
"निखट्टू गए हाट
मँगाई तराज़ू, ले आए बाट।"
निखट्टू दिन भर इधर-उधर आवारागर्दी करने के बाद रात को दुबकता-छिपता घर लौटता है। मुख्य द्वार से आने की हिम्मत नहीं होती तो बाँस की खपच्चियों से बने टट्टर से दुबककर आना चाहता है। घर की औरतें व्यंग्य करती हैं-
"टट्टर खोलो निखट्टू आए ।
पैसा एक न पूँजी लाए ।"
सोचिए, ऐसे निखट्टू से ब्याह दिए जाने पर नवविवाहिता की क्या हालत होगी। बेचारी ईश्वर को कोसती है कि ये कैसा न्याय है। हे नारायण, तुमने कैसे अनाड़ी से ब्याह दिया।बेर खाने वाला दाख का रस क्या जाने! ब्याह ठहराने वाले नाई और लगन ठहराने वाले बामन भी उसके व्यंग्यों से नहीं बचते।
"नारायण तेरे घर न्याय नईं रे
ऐसे अनाड़ी के ब्याह दई रे...!
का जाने मूरख कामिनि को रस
बेर खवइया को दाख दई रे ...
जरि जा रे नउवा, मरि जा रे बाँमना
जिन ऐसे लगन धरी रे...
ऐसे अनाड़ी के ब्याह दई रे...!"
~ (एक कुमाउँनी होली गीत)
किसी गोपी के अनाड़ी निखट्टू पति के ऐसे ही रंग-ढंग देखकर होली में एक ढीठ रसिया सीधे ही कह देता है:
"खसम तुम्हारे बड़े निखट्टू,
चलौ हमारे संग। रंग में होरी..."
भक्त कवि नागरी दास जी के शब्दों में निखट्टू की परिभाषा बड़ी रोचक है:
भक्ति बिन हैं सब लोग निखट्टू
आपस में लड़िबे-भिड़िबे कों,
जैसे जंगी टट्टू॥
नित उनकी मति भ्रमत रहति है,
जैसे लोलुप लट्टू।
‘नागरिया' जग में वे उछरत,
जिहि विधि नट के बट्टू॥
होली की शुभकामनाएँ।
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