सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अगस्त, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जोरू-जाँता

जोरू-जाँता  ••• जोरू का अर्थ है-- स्त्री, पत्नी, भार्या, घरवाली, औरत, बीवी।  जोरू शब्द की उत्पत्ति हिंदी के "जोड़ा" से कही जाती है और जोड़ा बना है संस्कृत के योटक से। (√यौट् बाँधना, जोड़ना to bind, to tie, to fasten together.)। ज्योतिष में ग्रह, राशि और नक्षत्रों के अनेक योटक (मेल) बनते हैं; जैसे षडकाष्टक (कुमाउँनी में खड़काश्टक्) एक योटक है। योटक से जोटा, जोटा से जोड़ा और जोरू के आने पर ही जोड़ा पूरा होता है। कुछ लोग जोरू शब्द को देशज भी मानते हैं। कहते हैं जिसके ज़ोर के आगे किसी का ज़ोर न चले, वह जोरू। जोरू-जाँता में जाँता (यन्त्र > जाँत > जाँता) का अर्थ है चक्की। पहले ग्रामीण जीवन में प्रत्येक घर में चक्की अवश्य होती थी जो गृहस्थी का अनिवार्य अंग थी। जोरू है तो जाँता भी चलता रहेगा, गृहस्थी भी। इसलिए जोरू-जाँता का अर्थ हुआ गृहस्थी, घर-परिवार, घर-बार । कहीं इसे जोरू-जाता भी कहा जाता है। जाता = जात अर्थात् पैदा हुआ। जोरू-जाता अर्थात् पति-पत्नी और उनकी संतानें, कुटुंब। जोरू का ग़ुलाम मुहावरे का अर्थ है पत्नी का भक्त या उसके वश में रहने वाला। समाज के कुछ वर्गों में आम बोल

फँसना, फाँसना और कटहल

फँसना ( क्रि.अक ) से फाँसना ( क्रि.सक ) नहीं, फाँसना से फँसना बनी है। क्योंकि मूल शब्द है फाँस [सं. पाश, प्रा. फाँस], अर्थ है बंधन, फंदा। नाग पाश या वरुण पाश को कहानियों में नाग फाँस, वरुण फाँस ही कहा जाता है। इसी फाँस से बना है फाँसी, जान से मारने के लिए बनाया गया फंदा। (फोटो मेरे कैमरे से, सेलुलर जेल, अंडमान)   फँसना रस्सी के फंदे में फँसना ही नहीं है, किसी की चाल में आ जाना, धोखा खा जाना भी इसका लाक्षणिक अर्थ है। हम ट्रैफिक में फँसते हैं, बातों में फस जाते हैं और आजकल तो कदम-कदम पर अपराधियों की चालबाज़ियों में फँसने का खतरा भी रहता है। दूसरी चुभने वाली फाँस (काँटा, नुकीली चीज) संस्कृत पनस से है। पनस कटहल को भी कहा जाता है। कटहल बना है कंटकफल से! कंटकफल> काँटाहल > काँटाल> कटहल।

धेले भर की बात ...!

'ईदगाह' कहानी सन 1933 में प्रकाशित हुई थी, आज से लगभग 100 साल पहले। तब की भाषा आज बहुत बदल गई और अनेक शब्द समझना कठिन हो गया है। प्रेमचंद की भाषा की मुख्य पहचान है कि वे बहुत से ऐसे शब्दों का उपयोग करते हैं जो तब गाँव देहात के या आम बोलचाल के रहे होंगे। अरबी-फ़ारसी मूल के उर्दू शैली के शब्द और कुछ ऐसे भी जो आज चलन से बिल्कुल बाहर हैं।  कथा नायक हामिद तीन पैसे में दादी के लिए दस्त-पनाह (चिमटा) खरीदने के बाद उसके समर्थन में ऐसे-ऐसे तर्क देता है कि उसके साथी निरुत्तर हो जाते हैं। जब वह कहता है, "वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे तो जाकर उन्हें ज़मीन पर पटक देगा और सारा क़ानून उनके पेट में डाल देगा”, तो कहानी लेखक टिप्पणी करता है: "बिल्कुल बेतुकी-सी बात थी लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए, मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज़ है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है।" पतंग

"शुद्ध गाय का घी" के बहाने

विज्ञापन है: "पतंजलि शुद्ध गाय का घी"। विज्ञापन कहना क्या चाहता है, यह तो थोड़ा-बहुत समझ में आ रहा है, लेकिन क्या ये शब्द जो कह रहे हैं वह ठीक वही है जो कहना चाहा है। भ्रम निवारण कैसे हो? वाक्य की बहिस्तलीय संरचना के अनुसार पहली दृष्टि में *शुद्ध गाय* में अन्विति दोष प्रतीत होता है अर्थात विशेषण-विशेष्य बेमेल हैं। शुद्ध तो घी होना चाहिए, शुद्ध गाय कैसे! गाय का (कैसा) घी? शुद्ध। आइए, अब अंतस्तलीय रचना देखें। समग्र कथ्य में पण्य वस्तु 'गाय का घी' (एक संज्ञा पदबंध) है, जिसकी शुद्धता की अपेक्षा ग्राहक को होगी और विज्ञापन के माध्यम से विक्रेता उसी का आश्वासन दे रहा है। दूसरे शब्दों में लक्षित ग्राहक समूह से  उत्पाद का सही और सफल संवाद हो रहा है। (कैसा) गाय का घी? शुद्ध। यहाँ //शुद्ध// समूचे संज्ञा पदबंध का विशेषण है। इसलिए भी: //शुद्ध// : //गाय का घी//। तीसरा पक्ष। शुद्ध को अपने स्थान से हटाने पर रचना होगी- "पतंजलि गाय का शुद्ध घी"। किंतु गाय पतंजलि नहीं है और पतंजलि की भी नहीं। इसलिए //शुद्ध// : //गाय का घी// यदि केवल इतना ही कहा गया होता-  "शुद्ध