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"शुद्ध गाय का घी" के बहाने

विज्ञापन है: "पतंजलि शुद्ध गाय का घी"।


विज्ञापन कहना क्या चाहता है, यह तो थोड़ा-बहुत समझ में आ रहा है, लेकिन क्या ये शब्द जो कह रहे हैं वह ठीक वही है जो कहना चाहा है। भ्रम निवारण कैसे हो?


वाक्य की बहिस्तलीय संरचना के अनुसार पहली दृष्टि में *शुद्ध गाय* में अन्विति दोष प्रतीत होता है अर्थात विशेषण-विशेष्य बेमेल हैं। शुद्ध तो घी होना चाहिए, शुद्ध गाय कैसे!
गाय का (कैसा) घी? शुद्ध।


आइए, अब अंतस्तलीय रचना देखें। समग्र कथ्य में पण्य वस्तु 'गाय का घी' (एक संज्ञा पदबंध) है, जिसकी शुद्धता की अपेक्षा ग्राहक को होगी और विज्ञापन के माध्यम से विक्रेता उसी का आश्वासन दे रहा है। दूसरे शब्दों में लक्षित ग्राहक समूह से  उत्पाद का सही और सफल संवाद हो रहा है।
(कैसा) गाय का घी? शुद्ध। यहाँ //शुद्ध// समूचे संज्ञा पदबंध का विशेषण है।
इसलिए भी: //शुद्ध// : //गाय का घी//।


तीसरा पक्ष।
शुद्ध को अपने स्थान से हटाने पर रचना होगी-
"पतंजलि गाय का शुद्ध घी"।
किंतु गाय पतंजलि नहीं है और पतंजलि की भी नहीं। इसलिए //शुद्ध// : //गाय का घी//

यदि केवल इतना ही कहा गया होता-  "शुद्ध गाय का घी", तब 'शुद्ध गाय' के स्थान पर 'गाय का शुद्ध घी' कहना उपयुक्त हो सकता था।

 
निष्कर्षत: समझने की बात यह है कि भाषा व्याकरण का अनुकरण नहीं करती, व्याकरण भाषा का पीछा करता है। किसी भी भाषा प्रयुक्ति का मुख्य उद्देश्य है अभीप्सित अर्थ का संप्रेषण। व्याकरण को अर्थ संप्रेषण में सहायक होना चाहिए, बाधक नहीं।

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