कहते हैं किसी के संस्कार या उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि देखनी हो तो यह देखिए की वह तू और आप सर्वनामों का प्रयोग कैसे करता है। भाषा के मृदु या कठोर होने का पैमाना भी इन्हीं दो सर्वनामों को मानते हैं। यह बात और है कि कुछ भाषाओं में आप का अभाव है। वे आप के बदले तुम से काम चला लेते हैं।
पंजाबी में आदरार्थक 'आप' सर्वनाम चाहे न हो, लेकिन परंपरा से पंजाबी को मीठी ही माना गया है। विभाजन से पूर्व पंजाब की भाषा के लिए चंद्रधर शर्मा गुलेरी की प्रसिद्ध कहानी 'उसने कहा था' को याद कर सकते हैं। कहानी की शुरूआत में ही अमृतसर के इक्केवालों की ज़ुबान सुनाई पड़ती है—-"हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँ वालिए; हट जा पुत्ताँ प्यारिए; बच जा लंबी वालिए।" समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? कितनी मिठास!
तहज़ीब-ओ-नज़ाकत वाले शहर लखनऊ के बारे में सुना जाता है कि गुस्से में भी वे तहज़ीब नहीं भूलते। आप सर्वनाम और -इए प्रत्यय वाली क्रियाएँ उन्हें बहुत प्रिय हैं। थप्पड़ मारने से पहले भी अर्ज किया जाता है, "म्याँ, बस कीजिए, कहीं ऐसा न हो आपके गुले गुलाब जैसे गालों पर हम अपनी हथेली चस्पा कर बैठें।" अब ये चाहे बीते ज़माने की बातें हो चुकी हों, ये ज़रूर है कि पुराने लखनऊ के कुछ लोगों में आज भी यह भाषा कहीं-कहीं बची मिल जाएगी। "शतरंज के खिलाड़ी", "दो बाँके" जैसी कहानियों में भाषा की मस्ती ध्यान देने योग्य है।
बिहार की बात ही और है। यह मुख्य रूप से भोजपुरी, मगही और मैथिली का क्षेत्र है किंतु अनेक उपभाषाएँ भी अपनी विशेषताओं के साथ विद्यमान हैं। सीतामढ़ी ज़िले में मैथिली, बज्जिका और भोजपुरी तीनों का प्रभाव है। सीतामढ़ी की बोली के बारे में दरभंगा वालों का कहना होता है कि सीतामढ़ी वाले वह बोली बोलते हैं जिसमें जीभ को कम से कम हिलना पड़े। शहर पटना में इतनी शिष्टता न सही, किंतु औपचारिक-अनौपचारिक भाषा में अंतर किया जाता है। तू, तुम सर्वनाम बहुत कम सुनाई पड़ते हैं। भोजपुरी हो या मैथिली, छोटे बच्चों को भी तू या अरे नहीं कहा जाता। बड़ों से प्रणाम के बदले दिल्ली-पंजाब की सार्वजनिक नमस्ते को समूचे पूर्वांचल मेंअशिष्टता के निकट माना जाता है। एक यातायात सिपाही को नियम तोड़ रहे ट्रक चालक से कहते सुना, "आप गाड़ी किनारे लगाइए।" ओये!, अबे! वाली दिल्ली में यह संवाद दुर्लभ है।
दिल्ली के स्वभाव में आप है ही नहीं। प्रयोग कर भी लें तो कुछ इस तरह, "मुन्ना, आपका मास्टर आया है।" या यों - "पिता जी, आप चलो, खाना खा लो।" क्रियापद को आदरार्थक बनाने वाले /-इए/ प्रत्यय को दिल्ली और उसके आसपास कोई पूछता नहीं।
~ओए! आलू कैसे दिया?
~ अबे, ठगने को हमीं मिले क्या तुझे।
दूसरी ओर लखनऊ के केलेवाले के बारे में एक बार पाकिस्तान की एक विदुषी आरफ़ा सईदा ज़फ़रा अपना पुराना संस्मरण सुना रही थीं। जब वे लखनऊ के लिए चलीं तो उन्हें समझाया गया कि लाहौर की तरह वहाँ भी भाव-ताव करना चाहिए। उन्होंने बात गाँठ बाँध ली। एक दिन लखनऊ यूनिवर्सिटी से बाहर निकलीं तो देखा कि कोई बुजुर्ग केलेवाला तीन रुपए दर्जन केले बेच रहा था। जब उन्होंने घर से मिली सीख को ध्यान में रखते हुए हिम्मत करके केले वाले से पूछा, "ढाई रुपए दर्जन न दीजिएगा?" तो केलेवाला बोला— "बिटिया! पौने तीन वाले तो अरमान लेके चले गए...!"
इलाहाबादी हिंदी की कुछ विशेषताएँ जो उसे औरों से भिन्न बनती हैं:
~अनादर सूचक 'तू' सर्वनाम का प्रयोग शिष्ट हिंदी में नहीं है।
~उ.पुरुष,एक वचन 'मैं' के लिए ब.व. 'हम' चलता है। फ़ोन पर 'हम कल आ रहे हैं' की सूचना मिलने पर पूछना पड़ता है 'अकेले आ रहे हैं या सपरिवार?'
~कर्ता कारक में 'ने' का अभाव, तदनुसार क्रिया रूप में सकर्मक/अकर्मक का बंधन नहीं है।
हम कहे।
पंडित जी कथा बाँच लिहिन।
~यह/वह सर्वनाम के कर्ता कारक बहु वचन में भी तिर्यक प्रत्यय /इन/ का प्रयोग और साथ में 'लोग' जोड़कर दुहरा बहुवचन।
इन लोग भी आएँगे।
उन लोग सब जानते हैं।
और हाँ, एक ठो, दू ठो को कोई कैसे बिसरा सकता है!
बनारस का हिंदी भाषा और साहित्य को बहुत बड़ा योगदान है। बनारसी हिंदी में भोजपुरी, अवधी का तत्व भी है और सत्व भी। सर्व समन्वयी भाषा है बनारसी, माने फुटपाथ पर बैठे रिक्शा वाले से लेकर, गलियों के लाला, घाट के पंडे, गुमास्ते, मल्लाह सब की बोलियों का कॉकटेल। बकौल काशीनाथ सिंह "अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है।” हम देख सकते हैं कि बनारस की संस्कृति में भाषाई नैतिकता का आग्रह नहीं है। शिष्ट-संभ्रांतों की भाषा भी "भोकारादि" गाली के बिना प्रभावी नहीं बन पाती।
मेरठ के बारे में "आप" क्षेत्र के एक महाविद्यालय के प्रवक्ता ने अपना संस्मरण सुनाया। कक्षा में अपना विषय समझाने के बाद जब उन्होंने पूछा कि आप लोग समझ गए? तो उत्तर मिला, "तू बोले जा मास्टर जी, म्हारी फिक्कर मती ना करे।" हरयाणवी, कौरवी में ऐसे रूखे प्रयोग खूब सुने जाते हैं। दिल्ली के ही एक गाँव में मैं एक प्राचार्य के घर पहुँचा तो उन्हें अपने पिताजी से "तू" कह कर बात करते सुना। जब मैंने कहा कि आप उन्हें "आप" क्यों नहीं कहते, तो उत्तर मिला— जिस दिन मैंने आप कह दिया, उनकी तबीयत ख़राब हो जाएगी। हमारे घरों में आप चलता ही नहीं।
राजस्थान अतिथि सत्कार के लिए जाना जाता है और उनकी भाषा बड़ी चोखी मानी जाती है। राजस्थान के स्नेह के बारे में कहावत ही है, "पाणी थोड़ा, नेह घणा!" अर्थात राजस्थान में चाहे पानी कम मिले, नेह में कोई कमी नहीं होती। राजस्थानी भाषा में आदर व्यक्त करने के लिए कई तरीके हैं, जिनमें "पधारो सा" (स्वागत है), "खम्मा घणी" (नमस्ते) और "आपणों" (आपका) जैसे शब्द शामिल हैं। शाह से विकसित आदरार्थक 'सा' रिश्तों में भी है- कुँवर सा बुआ सा,मामी सा आदि। समधन के लिए सहेली सा भी सुना। पधारजो! आरोगिये! में जो सम्मान और निकटता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। जोधपुर से हमारे एक मित्र ने बताया—उनके जोधपुर में गुस्से की चरम परिणति में भी "म्हारी जूती आप रै सिरपर बिराजै ली" कहा जाता है!
जैसे झील में दसों दिशाओं से पानी आ मिलता है वैसे ही झीलों के शहर भोपाल में दसियों देसी-विदेशी भाषाएँ आ मिली हैं। राजेश जोशी ने 'किस्सा कोताह' में भोपाल की भाषा का मनोरम चित्रण किया है, "अपन तो पेले से ही एसे, केसे, पेसे पर चकित थे कि पता चला वहाँ उर्दू भी दो प्रकार की हे - ज़नाना और मर्दाना!"— "शब्द के बीच में आने वाले "ह" का यहाँ लोप हो जाता था। भोपाल का मामला बिहार से एकदम उल्टा था। पहले या पहिले बोलना हो तो बोला जाएगा पेले। ऐ और औ की मात्रा बोलना भोपालियों के खाते में आया ही नहीं। मात्राएँ लगाने और बोलने में हम काफ़ी किफायती थे। पैसे को पेसे और कैसे को केसे बोला जाता|" विश्वास न हो तो शोले फ़िल्म के मियाँ सूरमा भोपाली (जगजीत) के संवाद याद कर लीजिए- एसे, केसे, पेसे ... कितने मज़ेदार थे।
मुंबइया और हैदराबादी हिंदी की चर्चा न करें तो बात अधूरी रह जाएगी।
मुंबइया हिंदी में सबसे अधिक इस्तेमाल किए जाने वाले सर्वनाम आप और तू हैं। यह मुंबई में सामाजिक संपर्क की एक निश्चित प्रकृति का परिचायक है, जहाँ व्यक्ति या तो दूर होता है या बहुत घनिष्ठ होता है। विविध स्थितियों के कुछ संवादों के उदाहरण देखिए—
~अपन को तेरे से प्यार है और तू ऐसा माफिक मेरे को छोड़ेली क्या?
~ये साला आदमी लोग, हमेंशा अपुन की वाट लगा देता है!
~मईं कबसे इधरिच खड़ा है। तेरेको टाइम पे आने का ना भाऊ।
~मैं तेरेको वोइच बोली जो वो मेरेको बोला।
हैदराबादी भाषा या दक्खनी हिंदुस्तानी, मराठी, कन्नड़ और तेलुगु का मिश्रण है लेकिन यह धारणा बना लेना ग़लत होगा कि यह केवल मिश्रण ही है। हैदराबादी हिंदी की मौलिकता उसे लोकप्रिय बना देती है। यह सड़क संवाद देखिए—
~बावा की सड़क समझे क्या रे तू?
~मार के मुँह फोड़ देतु तेरा।
~लिडा लिडा के मारतु!
माँ-बेटे का यह संवाद देखिए —
~खाली पीली काएकू रोता रे तू
~मैम मारी मेरे कू।
~क्यूँ मारी मैम?
~मैं उसकू मुर्गी बोला।
~क्यूँ बोला मुर्गी?
~रोज मेरेकू अंडा देती!
ये कुछ नमूने हैं देश की हिंदी के लहज़े के जो बताते हैं किस तरह आंचलिकता के तड़के आम हिंदी को ख़ास हिंदी बना देते हैं। वस्तुत: ये हिंदी की सर्वग्राह्यता के उदाहरण हैं। देश-विदेश में हिंदी जहाँ भी बोली जाती है वहाँ के प्रयोक्ताओं की भाषा को अपने में समाहित करती जाती है। यही कारण है कि फ़िजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद एवं टोबैगो, मॉरीशस में हिंदी आमजन की भाषा है और ये हिंदियाँ भारत की हिंदियों से अधिक दूर नहीं हैं।
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