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गाली चर्चा


"गाल्यते (विकृतिं याति मनः श्रवणमात्रेण) इति।
गालिः=अप्रियं वचः शापः वा॥"

समाज विज्ञानी गाली के शास्त्र को समाज के मनोविज्ञान से भी जोड़ते हैं। यों तो प्रत्येक भाषा में, प्रत्येक समाज में गालियां रही हैं किंतु उनका प्रयोग किन्हीं विशेष परिस्थितियों में, विशेष संबंधों में, विशेष समाज द्वारा ही किया जाता है।  पूरी दुनिया की भाषाई संस्कृति की अभिव्यक्ति में गालियों की अपनी जगह होती है. गालियां क्रोध, अपमान और कभी-कभी प्रेम की अभिव्यक्ति भी होती हैं. 

 यह अटपटा-सा लगता है यदि हम गाली चर्चा में मर्यादा शब्द को भी जोड़ें। क्या गाली की भी मर्यादा हो सकती है? हो सकती है समाज की मान्यताओं, उसके संस्कारों, सामाजिकों के शिक्षा-सभ्यता के अनुसार। एक आदर्श समाज में गाली के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए, पर हम जानते हैं ऐसा सिर्फ कल्पनाओं में होता है. लोग एक-दूसरे को जलील करने के तरीके खोज ही लेते हैं और हमेशा करते रहेंगे.

गाली के असली मर्म और धर्म को सम्राट अशोक और उसके बौद्ध सलाहकारों ने पहचाना होगा। ब्राह्मणों ने तो उसे ’’देवानाम् प्रिय:’’ (मूर्ख) कहकर गाली ही दी थी किंतु उन्होंने स्वीकार कर ली। आज इतिहासकार ’’देवानाम् प्रिय’’ का अभिधार्थ ’’देवताओं का प्रिय’’ मानकर उसे सम्राट अशोक का विशेषण मानते हैं। गौतम बुद्ध के बुद्ध विशेषण से 'बुद्धू' के आविष्कार के पीछे भी गालीकरण की प्रवृत्ति ही है। 

 ‘हरामी’ अरबी भाषा का शब्द है जो अब उतना ही भारतीय भी है. पर प्राचीन संस्कृत साहित्य में इसका समानार्थी कोई शब्द नहीं है. इसका कारण क्या है? ऐसा भी नहीं है कि संस्कृत साहित्य में गालियाँ नहीं हैं। ‘दास्या: पुत्र’ (दासी का पुत्र, क्योंकि पिता ज्ञात नहीं है), ‘गुरुपत्नीगामी’, (गुरु की पत्नी से सम्भोग करने वाला), 'गुरुतल्पग' (गुरु की शय्या तक पहुँच वाला), कानीनः (अविवाहित कन्या का पुत्र) इत्यादि मिलते हैं पर उनका चित्रण गाली के रूप में कभी कभी ही हुआ है.

 किसी समाज में प्रचलित गालियां ये बताती हैं कि सबसे बुरा अपमान कैसे हो सकता है. सामाजिक व्यवहार की सीमा क्या है। इनमें छिपी हुई लैंगिक हिंसा यह दिखाती है कि कैसे हम किसी को नीचा दिखा सकते हैं. प्रायः औरत का शरीर ही इन गालियों का केंद्र होता है. युद्ध या सांप्रदायिक दंगों में सबसे पहले महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. हर सन्दर्भ में गाली का मकसद एक जैसा नहीं होता।
परिवार के सदस्यों को लेकर बनी गालियों के पीछे धारणा यह थी कि जिन लोगों से आपका गहरा लगाव है उन्हें गाली देने से आपको चोट पहुंचेगी. बहन के नाम पर दी जाने वाली सबसे ज्यादा ‘लोकप्रिय’ भारतीय गाली का कोई यूरोपीय संस्करण नहीं।, माँ के नाम पर गाली वहाँ भी है, पर माँ की योनि से पैदा होने को लेकर ‘प्रचलित’ भारतीय (बनारसी?) गाली ‘भो**डी के’ का कोई यूरोपीय संस्करण नहीं है. माँ के नाम पर दी जाने वाली अन्य गाली का पहला शब्द ‘मादर’ एक फारसी शब्द है।। हम कहते भी हैं- मादर-ए-हिन्द या मादर-ए-वतन। इस गाली का अगला शब्द संभवतः हिन्दुस्तानी शब्द ‘छेद’ से आता है किंतु कुछ पवित्रतावादी इसे सीधे गायत्री मंत्र से भी जोड़ते हैं।

 आज विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय अंग्रेजी की चौ-आखरी (four letter) गाली किसी ज़माने में अछूत थी। ऑक्सफ़ोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के पहले संस्करण में ‘F**k’ शब्द मिलता ही नहीं है क्योंकि वे इसे बहुत बुरा शब्द मानते थे। लिखित अंग्रेजी साहित्य में पहली बार इस शब्द का खुला इस्तेमाल कवि सर डेविड लिंडेसी ने सन् 1535 में किया. दूसरे पॉपुलर गाली शब्दों का भी कुछ ऐसा ही इतिहास है जो बताता है कि गालियों के साम्राज्यवाद के लिए भी कुछ नियम काम करते हैं। जैसे पिछली सदी के प्रारंभ तक ब्रिटेन के कुलीनों में ‘Bloody’ बहुत ही बुरा शब्द माना जाता था. 1914 में जब जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के नाटक ‘प्यग्मलिओन’ (Pygmalion) में एक पात्र इस शब्द का प्रयोग करता है तो लंदन के ‘सभ्य-समूह’ इसका विरोध करते हैं ।

असल में गाली किसी लंबे उबाऊ वार्तालाप को एक झटके में खत्म करने का गारण्टी शुदा शार्टकट है और आगे संबंध बने रहने या टूट जाने का निर्धारक भी। प्रायः ऐसा भी होता है कि धुआंधार गालियां धुआंधार झगड़े और मारपीट से बचा लेती है कि ऐसा एक बार तो हो सकता है, पर भविष्य में नही होगा ऐसा कहना कठिन है। गालियां अपने मन की भड़ास निकालने का मुक्त किंतु गारण्टी शुदा इलाज हैं। सार्वजनिक मंचों से, टीवी चैनलों पर ऐसी अभद्र गाली उस व्यक्ति विशेष की मानसिक बुनावट, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उसके समाज-व्यवहार को भी प्रतिबिंबित करती है। भारतीय सेना के वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त एक वयोवृद्ध देशभक्त बहस के बीच खुलेआम माँ-बहन की गाली दे, उसका सजीव प्रसारण हो और हम श्रोता उसे मौन होकर सुनें, उसमें आनंद लें, उसकी वकालत करें तो मानना पड़ेगा कि हमारा समाज भी गंभीर रूप से रुग्ण हो गया है। 

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही रोचक विषय पर आपके विचारों और तथ्यों से भरपूर इस लेख को पढ़कर अच्छा लगा। गाली का अति-उपयोगी हो जाना भी समाज और पारिवारिक पतन की ओर इंगित करता है। आज जिस धड़ल्ले से ओटीटी फिल्मों और सामाजिक संवाद मंचों पर गालियों का गर्व सहित उपयोग हो रहा है, वह भी हमारी वैचारिक पतन और असहिष्णुता की ओर ही इशारा करता है।

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  2. समाजशास्त्र और भाषाशास्त्र के रिश्ते का अच्छा विश्लेषण।
    "इस गाली का अगला शब्द संभवतः हिन्दुस्तानी शब्द ‘छेद’ से आता है किंतु कुछ पवित्रतावादी इसे सीधे गायत्री मंत्र से भी जोड़ते हैं।"
    इस पर पुनर्विचार किया जा सकता है. गाली में प्रयुक्त शब्द विशेषण है. छेद का संज्ञा भाव ही प्रधान है इसलिए सम्भावना यहाँ पवित्रतावादी गायत्री मंत्र से जुड़ने की अधिक है.

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  3. अत्यंत विश्लेषणत्मक और गवेषणात्मक ढंग से विषय परोसा गया है । संस्कृत में जो अपशब्द व्यवहार करते है उसका संबंध व्याकरणीय नियमों के लंघन से लिया जाता है पर हिंदी मै अपशब्द गली का का पर्याय है ।

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  4. महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में गाली आम बात है। नाटक संवाद,साहित्य में गालियों की भरमार है। वहां सबसे प्रिय व्यक्ति को गाली से सम्बोधित किया जाता है।

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  5. दुबारा पढ़ने पर भी उतना ही रोचक लग रहा है जितना पहले बार ।
    गाली प्रेशर कुकर की सीटी की तरह काम करता है । धन्यवाद दादा

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  6. तीसरी बार पढ़ने पर भी उतना ही रोचक लगा । गालियां हमारे मानसिक तनाव को कुछ हद तक कम कर देती है । गुस्से में मनुष्य आजकल एक दूसरे को खत्म तक कर देते है , मारने की अपेक्षा गाली से काम चलाया जा सकता है । वही जो अपने कहा मन की भड़ास निकालना । गालियां मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है , हां उनकी भी मर्यादा होनी चाहिए ।
    साइकोथेरेपी में व्यक्ति अपने मन की भड़ास चिकित्सक की उपस्थिति में निकल लेता है । वहां गालियां देने के लिए फीस चुकानी पड़ती है ।
    धन्यवाद

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