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कुछ गप्पें कुछ सच्चाइयाँ


#गप : एक
सोच रहा हूँ आज सिर्फ गप मारी जाए और गप ऐसी जो गप न हो, सच हो। अब हिंदी को ही लें। भेद बुद्धि के लोग भाषा को मजहब से जोड़ देते हैं, जैसे हिंदी एक धर्म की, उर्दू दूसरे मजहब की। अंग्रेजी को थर्ड रिलीजन की नहीं कहते क्योंकि उसके बिना काम नहीं चलता। ऐसा होने लगे तो उसका भी कबूतर खाना तय है।
मुझे हैरानी होती है कि हम शुद्ध हिंदी की बात तो करते हैं लेकिन यह हिंदी शब्द उन अर्थों में शुद्ध नहीं है यानी देवभाषा संस्कृत से व्युत्पन्न नहीं है। आक्रामकों के साथ आई फ़ारसी भाषा का है। सिंध उनके लिए हिंद था और हिंद की भाषा हो गई हिंदवी। अमीर खुसरो, जिन्हें हिंदी और उर्दू वाले दोनों ही अपना कहते हैं, वे इसे हिंदवी या भाखा ही कहते थे। भाखा से याद आया। यह भाषा ही भाखा कहलाया। हमें याद है पुरानी संस्कृत की पुस्तकों में भी भाखा - टीका होती थी या भाषा टीका। हम तो जब मदरसे (जी, बिदकिए मत। तब इस्कूल को मदरसा कहा जाता था!) जाते थे तो विषय दो ही होते थे- भाषा और हिसाब। पाठशाला शब्द तो पुस्तक से घोघा था। पंडिज्जी ने समझाया था, "पाठशाला यानी मदरसा। बच्चो, पाठशाला को आजकल इस्कूल कहते हैं।"

तुलसी बाबा तो कह ही गए "भासा भनिति मोरि मति थोरी।"
फक्कड़ कबीर तो जैसे पत्थर ही उछाल गए। एक पत्थर, निशाने दो:
"संसकिरित है कूप जल, भाखा बहता नीर।"

 गरज यह कि संपूर्ण हिंदी क्षेत्र में हिंदी ही नहीं थी, हिंदवी थी या भाखा थी।


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