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ही संधि : हिंदी की अपनी संधि




संधि से तात्पर्य किन्हीं दो निकटस्थ ध्वनियों के मेल से उनमें आने वाला स्वनिमिक परिवर्तन है। हिंदी में संधि के नाम पर वस्तुतः संस्कृत की ही संधियाँ पढ़ाई जा रही हैं। स्वर, व्यंजन, विसर्ग के नाम से जिन संधियों की चर्चा हिंदी में की जाती है उनके सारे के सारे उदाहरण संस्कृत से हिंदी में आए तत्सम शब्दों के उदाहरण हैं। संधि के नाम पर सिखाई जाने वाली संधियाँ हिंदी की नहीं, संस्कृत की हैं और केवल कुछ तत्सम शब्दों में होती हैं, सभी में नहीं। हिंदी में दंडाधिकारी होता है, वितरणाधिकारी नहीं। महोदय संभव है, पदोदय नहीं। सदैव बनता है, सदैक नहीं बनता। असल में हिंदी की प्रवृत्ति वियोगात्मक है, संधि करने की नहीं। कुछ स्थितियों में हिंदी की अपनी संधियाँ विकसित हुई हैं किंतु उन पर ध्यान नहीं दिया गया और वैयाकरण उनकी अनदेखी करते हैं। 
उदाहरण के लिए कुछ विशेष स्थितियों में निपात "ही" के संपर्क में आने पर हिंदी के कुछ शब्दों में रूपस्वनिमिक परिवर्तन दिखाई पड़ता है। इसे "ही-संधि" कहा जा सकता है जो हिंदी की अपनी संधि है क्योंकि अब  इसके अपने नियम बन गए हैं। इस "ही-संधि" में पास-पास आई ध्वनियों का स्वाभाविक रूप से मेल होने के कारण रूपस्वनिमिक परिवर्तन (morphophonemic change)  होता है ।
यहाँ "ही-संधि'" के कुछ स्थिर हो रहे नियमों की चर्चा की जा रही है।

1. सर्वनाम के तिर्यक रूप के साथ पदांत अकार (schwa) लोप होने के बाद /ही/ /ई/ में बदलकर पूर्व पद से जुड़ जाती है।
यह => इस + ही > इसी
वह => उस + ही > उसी
कौन => किस + ही > किसी
जो => जिस + ही > जिसी
मैं => मुझ +ही > मुझी
तू => तुझ +ही > तुझी

2. कुछ समयसूचक क्रियाविशेषणों का पूर्व पदांत /ब/ महाप्राण /ह/ से मिलकर महाप्राण /भ/ में बदलता है। 
अब + ही > अभी
तब + ही > तभी
जब + ही > जभी
कब + ही > कभी
सब + ही > सभी

ही-संधि के कुछ और उदाहरण

3. कुछ स्थानसूचक क्रियाविशेषणों के पूर्व पदांत हाँ + ही में एकादेश 'ही'; अनुनासिकता अंतिम स्वर में स्थानांतरित ।
वहाँ + ही > वहीं
कहाँ + ही > कहीं
यहाँ + ही > यहीं
जहाँ + ही > जहीं

4.  पूर्व पद के पदांत अकार (schwa) का लोप, ही से मिलना, नासिक्य व्यंजन ध्वनि म् का अनुनासिकता में बदलना और पदांत स्वर में अनुनासिकता का स्थानांतरण।
तुम + ही > तुम्हीं
हम + ही > हम्हीं
यह + ही > यही
वह + ही > वही

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