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जातीय गालियाँ और अपशब्द

किसी भी भाषा में समाज भाषा-वैज्ञानिक नियंत्रण बड़े महत्वपूर्ण होते हैं। इनसे भाषिक नियमों में विचलन होता है, अर्थ विस्तार होता है, अपकर्ष होता है और सबसे बड़ी बात कि शब्द प्रयोग पर नियंत्रण या नियमन भी हो जाता है । हिंदी में भी अनेक समाज भाषा वैज्ञानिक विचलन देखे जा सकते हैं। भाषा विशेष के शब्द भंडार के सामान्य से लगने वाले शब्दों में भी वक्ता के उद्देश्य, टोन और उद्दिष्ट पात्र के प्रति वक्ता के दृष्टिकोण के अनुसार अर्थ में विशेष परिवर्तन आ जाता है। इसका एक आयाम है- जातीय गालियाँ और अपमानजनक शब्द।
भारत चूँकि भौगोलिक विविधताओं, विविध भाषाओं और मानव समुदायों का देश है, इसलिए इस प्रकार के विविध शब्द प्रत्येक भारतीय भाषा में प्राप्त होते हैं। राज्यों और क्षेत्रों के अनुसार कुछ अपमानजनक भाषिक अपकर्ष इस प्रकार हैं। संपूर्ण हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए जो अपमानजनक शब्द गढ़े गए हैं उनमें प्रमुख हैं - गौ पट्टी, गाय पट्टी, गोबर पट्टी और अंग्रेजी में काऊ बेल्ट। विडंबना यह है कि इन शब्दों को प्रचारित करने में इसी पट्टी के मीडिया ने भी कसर नहीं छोड़ी। 
कथित गाय पट्टी के पूर्वी क्षेत्र के निवासियों के लिए सर्वाधिक प्रचलित जातीय अपशब्द है- बिहारी या भैय्ये। बिहारी मूल रूप से पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि से देशभर में छोटे-मोटे कामों के लिए जाने वाले लोगों के लिए प्रयुक्त होता था। बाद में इसे अपमानजनक अर्थ दे दिया गया। यह समस्त उत्तर भारत, गुजरात महाराष्ट्र और दक्षिण में भी कहा जाता है। विदेशों में भी प्रवासी कामगारों में बिहारी शब्द का प्रयोग जातीय गाली के रूप में होता है। इसी प्रकार पंजाबी को पंजू, गुजराती को गुज्जू, मराठी को घाटी, मलयाली को मल्लू, बंगाली को बोंग कहा जाता है। इनमें गुज्जू या मल्लू घोर अपमानजनक नहीं है क्योंकि बहुत से लोग इनका बुरा नहीं मानते। बंगाल में तो क्षेत्रानुसार 3 शब्द प्रचलित हैं। पूर्वी बंगाली को बांगाल, पश्चिमी बंगाली को घौटी और दोनों के मिश्रित संस्कार वालों को बाटी कहा जाता है। बंगाल में ही नेपाली के लिए अपमानजनक शब्द है नेपला, मारवाड़ी के लिए मेड़ो या धूर, बिहारी के लिए खोट्टा और उड़िया के लिए उड़े। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के निवासियों को अपमानार्थक रूप में पहाड़ी संबोधन दिया जाता है। 
दक्षिण भारत के चारों राज्यों के निवासियों के लिए उत्तर भारत में एक सामूहिक नाम है: मद्रासी। इसी के समकक्ष दक्षिण में भी हिंदी-पंजाबी भाषियों को पंजाबी में शामिल कर लिया जाता है। तमिलनाडु के निवासियों को मलयालम में पंडी, कर्नाटक में कौंगा और आंध्र में गुल्टे कहा जाता है। विशेष रूप से शाकाहारी ब्राह्मणों के लिए अपमानजनक शब्द उनके प्रमुख आहार (दही-भात) को लेकर गढ़ा गया है- मोर सादम् या तयिर सादम्। इसका अर्थ है मट्ठे के साथ या दही के साथ भात खाने वाले अर्थात शारीरिक बल में मांसाहारियों की अपेक्षा दुर्बल।
कुछ जातीय गालियाँ चमड़ी के रंग और नस्ल को लेकर भी हैं। काले वर्ण वाले के लिए कल्लू, कलुआ, कलूटा, कालिया, हब्शी जैसे अपमानजनक शब्द हैं। पूर्वोत्तर भारत के भिन्न नस्ल के भारतीयों के लिए चिंकी शब्द का प्रचलन है जो सामान्यतः चीनियों के लिए है। अज्ञान की सीमा तो तब दिखाई पड़ती है, जब इन्हें सचमुच चीनी नागरिक मानकर इनके साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार तक किया जाता है। 
मैला उठाने, ढोने वाले सफाई कर्मी के लिए पारंपरिक अपशब्द था भंगी। कहते हैं अकबर को भी यह शब्द पसंद नहीं था। उसने इन्हें नाम दिया था 'हलाल ख़ोर' अर्थात मेहनत से रोजी कमाने वाले। जातिगत स्तरीकरण में सबसे निचले पायदान के लोगों के लिए स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में एक शब्द चला था हरिजन। हरिजन शब्द गांधी जी का दिया हुआ था, वे इस नाम से एक पत्रिका भी निकाला करते थे। अंबेडकर इस शब्द के विरोधी थे और आगे चलकर हरिजन शब्द को लेकर भी समाज में असंतोष दिखाई पड़ा और 1982 में इसे प्रचलन से हटा दिया गया। 
कश्मीरियों के लिए डोगरी भाषा में प्रचलित एक जातीय अपशब्द है लोला। इसे यौनिक गाली (सेक्सुअल स्लर) भी कहा जा सकता है। डोगरी में लोला का अर्थ है शिथिल पुरुष-जननांग, जिसका लाक्षणिक अर्थ दुर्बल, नपुंसक से लिया जाता है। इसे लेकर एक कहावत ही चल पड़ी है -
हाथ में कंगड़ी, मुँह में छोले 
कहाँ से आए कश्मीरी लोले!
यौनिक अपशब्दों की सूची में लोला के अतिरिक्त गाँडू, छक्का, लौंडेबाज़, चोदा जैसे ग्राम्य शब्द भी हैं।

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