मूर्ति और विग्रह के अर्थ में सामान्यतः कोई अंतर नहीं है। दोनों का प्रयोग आकृति, स्वरूप, शक्ल-सूरत के अर्थ में किया जाता है। किसी की आकृति के सदृश गढ़ी हुई प्रतिमा भी मूर्ति ही है।
मूर्ति और विग्रह शब्दों के प्रयोग में कहीं कुछ स्थितियों में अवश्य अंतर मिलता है। जैसे मूर्ति किसी जीवित/दिवंगत व्यक्ति या पशु-पक्षी की भी हो सकती है, विग्रह आराध्य का होता है। मूर्ति को घर , आँगन, चौराहे या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर स्थापित किया देखा जा सकता है, विग्रह के लिए निर्धारित स्थान घर का पूजा स्थल या मंदिर का गर्भगृह ही हो सकता है।
किसी देवता की मूर्ति, जब शास्त्रोक्त विधि से मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठित हो जाती है, तब वह अमुक देवता का विग्रह कहा जाता है। मूर्ति भगवान की होती है और विग्रह मानी जाने वाली मूर्ति में स्वयं भगवान ही माने जाते हैं। यह भक्त के ऊपर है कि वह किस भाव को ग्रहण करता है।
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