गृह तत्सम शब्द है, अर्थ है- घर, निवासस्थान, बसेरा। हिंदी में सामान्यत: देखा जाता है कि गृह अकेला बहुत कम प्रयुक्त होता है। मैं अपने गृह गया, गृह से आया ऐसा नहीं कहा जाता; कहा जाता है: मैं घर गया, घर से आया। गृह तो प्रायः समास के रूप में प्रयुक्त देखा जाता है, जैसे गृह कार्य, गृह मंत्री, गृह प्रवेश, गृह सचिव इत्यादि। इन स्थितियों में घर कार्य, घर मंत्री, घर सचिव, घर प्रवेश नहीं कहा जाएगा। गृहस्थ, गृही और गृहिणी इसी तरह से बने हैं।
घर गृह से बना तद्भव शब्द है। इसका प्रयोग क्षेत्र गृह से अधिक विस्तृत है। घर निवास, शरण, रहने-खाने की जगह या फिर निजी संपत्ति को सुरक्षित रखने का एक स्थान है। घर या गृह किसी घर गृह के भीतर भी हो सकते हैं एक इकाई के भीतर की इकाइयाँ। जैसे गर्भगृह, पूजा गृह, पूजा घर, रसोईघर, स्नानघर, सामान घर। कुछ घरों में आप रहते नहीं, अधिक समय भी नहीं बिताते। बस, काम संपन्न होने पर निकल पड़ते हैं; जैसे - जलपान गृह, पूजा गृह, स्नान गृह, डाकघर, तारघर, टिकिटघर, बिजलीघर।
घर अलग से स्वतंत्र शब्द के रूप में या यौगिक रूपों में प्रयुक्त हो सकता है। जैसे:
मेरे घर आइए।
गाँव में कितने घर हैं?
घर कहाँ है आपका?
कुछ यौगिक शब्द हैं: घर खर्च, घर-द्वार घर-बाहर, घर-घर, घरवाली, घर-आँगन, घर-द्वार, घर-गृहस्थी ।
घर और मकान एक दूसरे के पर्याय की भाँति प्रयोग किए जाते हैं पर ये ठीक-ठीक समानार्थी नहीं हैं। दोनों में अंतर है। मकान आवास के लिए निर्मित, रहने की सुविधाओं से युक्त एक ढाँचा भर है जिसे आप बनवाते हैं, खरीदते हैं, किराए में लेते या देते हैं।
घर से आत्मीय संबंध स्थापित होता है। घर पैतृक, पारंपरिक और स्थायी निवास स्थान को भी कहा जाता है जो हमारे पूर्वजों से प्राप्त विरासत होती है या हमारी अपनी मेहनत और आमदनी से अपने बच्चों के साथ शांतिपूर्वक रहने के लिए निर्मित किया जाता है। घर के लिए ज़रूरी नहीं कि लोगों के पास रहने की शानदार इमारत हो। जहाँ परिवार के लोग सुख-दुख में एक साथ रहते हैं उसे ही घर माना जाता है जबकि मकान लोगों से नहीं सामान से बनता है। घर में रिश्ते होते हैं- भाई, भाभी, बहन, पिता, माता, पति, पत्नी, बच्चे, अतिथि, संबंधी आदि।
न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
(किसी ढाँचे को घर कह देने भर से वह घर नहीं हो जाता, घरनी से घर बनता है।
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गृह के साथ भरमाने वाला एक शब्द है ग्रह, स्वरूप और उच्चारण में लगभग समान लेकिन अर्थ में बिल्कुल भिन्न। इसलिए इन दोनों में अंतर समझना आवश्यक है। सूर्य की परिक्रमा करने वाले आकाशीय पिंड ग्रह कहे जाते हैं। यों तो भारतीय ज्योतिष सूर्य को भी एक ग्रह मानता है किंतु वैज्ञानिकों के अनुसार सूर्य एक तारा है जो स्थिर है, अपनी प्रकार से चमकता है और ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं तथा सूर्य से ही प्रकाश प्राप्त करते हैं। ज्योतिष शास्त्र इनका संबंध भाग्य-दशा, ऊँच-नीच से भी जोड़ता है। ग्रह अच्छे-बुरे हो सकते हैं, इसे ग्रह दशा कहा जाता है। यह भी जान लेने की बात है कि एक ही ग्रह भिन्न गृह में भिन्न स्वभाव का हो जाता है, अर्थात अच्छा ग्रह भी बुरे गृह में हो तो अशुभ फल देता है, ऐसी मान्यता है।
ग्रह का शाब्दिक अर्थ है पकड़ना, दबाना, जकड़ना। इसी से शब्द बनते हैं ग्रहण, पाणिग्रहण, चंद्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण इत्यादि। किसी का भाग्य बुरा चल रहा हो तो कहा जाता है उसके भाग्य को तो ग्रहण लग गया। दूसरी ओर कविता का अर्थ ग्रहण, भाव ग्रहण भी होता है। शपथ ग्रहण, पुरस्कार ग्रहण, अवकाश ग्रहण जैसे यौगिक शब्द भी बनते हैं। कोई वस्तु ग्राह्य हो तो उसे ग्रहणीय कह सकते हैं। सन्यास भी ग्रहण किया जाता है और दान भी। ग्रहण का विलोम है त्याग। ग्रहीता वह है जो दाता से कुछ ग्रहण करता है। इससे ग्राहक, ग्राही शब्द बनते हैं; आग्रह और आग्रही भी। विग्रह (अलग होना), संग्रह (इकट्ठा करना), अनुग्रह (कृपा) आग्रह (अनुरोध), निग्रह (रोक) आदि इसी √ग्रह से बने हैं।
हिंदी में कुछ शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत से आए हैं किंतु उनमें ग्रह से बने होने के बाद भी गृह दिखाई पड़ता है इसलिए वर्तनी में दुविधा होती है। नियम स्पष्ट न होने से भूल होना निश्चित है और स्वाभाविक भी। नियम संक्षेप में यह है कि ग्रह के साथ पूर्णता के अर्थ में इत प्रत्यय जोड़ने से गृहीत बनता है। इसी प्रकार संग्रह से संगृहीत, अनुग्रह से अनुगृहीत जैसे शब्द भी बनते हैं। ऐसी स्थितियों में र् व्यंजन को ऋ स्वर में बदलने की प्रक्रिया संस्कृत व्याकरण समझाता है। हिंदी में यह शब्द ज्यों के त्यों (तत्सम रूप) में आते हैं और आवश्यक नहीं कि प्रत्येक हिंदी जानने वाला संस्कृत के जटिल व्याकरणिक नियमों से भी परिचित हो। इसलिए यह भूल क्षम्य मानी जानी चाहिए तथा दोनों ही वर्तनियाँ स्वीकार की जानी चाहिए। हिंदी धीरे-धीरे संस्कृत के जटिल नियमों के बंधनों से कहीं-कहीं अपने को अलग भी कर रही है, यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।
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