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हो गया बंटाढार

हम ज्यों-ज्यों गाँव देहात के लोक जीवन से कटकर शहरी होते जा रहे हैं त्यों-त्यों लोक से जुड़े अनेक भाषिक शिष्टाचार भी हमारे लिए अबूझ होते जा रहे हैं। मुहावरों की बात करें। सैकड़ों मुहावरे गाँव की मिट्टी से, वहाँ के जनजीवन से उत्पन्न हुए हैं। जिन्हें आज हम जानते भी हों तो भी नहीं कहा जा सकता कि आने वाली पीढ़ी उनके मूल को समझ सकेगी, उनकी सराहना कर सकेगी। ऐसा ही एक मुहावरा है बंटाढार हो जाना, बंटाढार कर देना।
बंटा पीतल के बड़े बर्तन को कहा जाता है जो पानी लाने, उसे भंडारित करने तथा अन्य अनेक घरेलू या सामाजिक कामकाज में प्रयुक्त होता था। राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में गांवों में अब भी कहीं-कहीं बंटा दिखाई पड़ता है। हरियाणा का एक प्रसिद्ध लोकगीत आज भी गाया जाता है
मेरे सिर पै बंटा टोकणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल
मैं पतळी सी कामणी, मेरे हाथ में नेज्जू डोल।"
बंटा के ढलक जाने से (ढलना/ढालना > ढाल > ढार > धार), लुढ़क जाने से उसमें रखी हुई वस्तु, पेय या खाद्य पदार्थ बिखर जाएँगे। बंटाढार होने में अधिक और संभवतः अपूरणीय हानि की संभावना है। इसलिए मुहावरा बना बंटाढार (बंटाधार) कर दिया, अर्थात बहुत बड़ा नुकसान कर दिया।

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