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भाषाई या भाषायी

स्वरांतता हिंदी की स्वाभाविक प्रकृति है। गया/ गई में एक स्थान पर श्रुति के रूप में य् व्यंजन और दूसरे पर शुद्ध स्वर ई आने का एक विशेष कारण है, जिसकी चर्चा अन्यत्र की गई है। गई हुई को गयी हुयी लिखने वाले इस 'यी-संप्रदाय' का प्रभाव संक्रमित होकर अनेक स्थानों पर देखा जा सकता है; जैसे: स्थायी, अनुयायी, उत्तरदायी, विनयी, मितव्ययी जैसे शब्दों को स्थाई, अनुयाई, उत्तरदाई, विनई, मितव्यई आदि लिखा जा रहा है। 
इधर कुछ हिंदी के लेखकों, शिक्षकों, भाषाविदों, वैयाकरणों को तक एक शब्द लिखते हुए पाया जा सकता है, "भाषायी"। यह अति सतर्कता का परिणाम है । इन्हें यह तो मालूम है कि स्थाई, उत्तरदाई जैसे शब्द अशुद्ध हैं, इनमें ई के स्थान पर यी आना चाहिए। तो इसका उपयोग करते हुए वे भाषाई को भाषायी लिख देते हैं, और बेचारी भाषा घुटकर रह जाती है। यह मान लिया जाना चाहिए कि जान-बूझकर अशुद्धि कोई नहीं करता, अशुद्धियों का भी अपना व्याकरण होता है। यहाँ भी मुख्य कारण यह है कि शब्द की मूल संरचना ज्ञात न होने से ई के स्थान पर यी और यी के स्थान पर ई आ रही है।
जब यी मूल शब्द का ही घटक हो, अर्थात उसकी वर्तनी में हो, तो उसे ई से नहीं बदला जा सकता। स्थायी, उत्तरदायी, मितव्ययी आदि ऐसे ही शब्द हैं। ठीक इसी प्रकार जब ई स्वर किसी शब्द का घटक हो, उसकी वर्तनी में शामिल हो तो उसके स्थान पर भी यी नहीं किया जा सकता; जैसे भाषायी, पंडितायी। इसी प्रकार पढ़ाई, लिखाई, रुलाई, मलाई, मिठाई में भी ई को यी से बदल देने पर जग-हँसाई होना पक्का है। कल्पना कीजिए मिठाई या मलाई में से ई ही निकल जाए तो उनका स्वाद कैसा होगा! यह अनावश्यक ई-कार भाषा को भी स्वादहीन कर देता है।
हिंदी में दो प्रकार के ई प्रत्यय हैं- जो भाववाचक संज्ञा बनाते हैं; जैसे: भलाई, बुराई, लिखाई, ऊँचाई, हँसाई, बड़ाई। दूसरा ई प्रत्यय विशेषण बनाता है; जैसे: ऊँची, नीची, किताबी, भाषाई। इन दोनों प्रकार के शब्दों में ई को यी से नहीं बदला जा सकता। राजनय से राजनयिक, आनंदमय से आनंदमयी, नायक से नायिका होंगे किंतु राजनइक, आनंदमई, नाइका नहीं होंगे। 

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